
Faisal Aurag
स्टडी इन इंडिया को वित्त बजट में एक बड़ी महत्वकांक्षी योजना की तरह निर्मला सीतारमण ने पेश किया है. दरअसल 2018 की इस योजना को इस तरह प्रस्तुत किया गया मानों यह बिल्कुल पहली बार किया जा रहा है. विदेशी छात्रों को भारत में उच्च शिक्षा के लिए बड़े पैमाने पर आकर्षित करने की इस योजना को लेकर शिक्षाविदों के अपने सवाल मुखर हो रहे हैं. भारत में पड़ोसी और अफ्रीकी देशों के छात्र नेहरू के जमाने से ही पढ़ते आये हैं.
इन देशों के उच्च पदों पर बैठे हुए अनेक लोगों ने भारत में ही शिक्षा हासिल की है. बावजूद इसके हर चीज में पहला होने का एक अजीब दौर मोदी सरकार की पहचान बना हुआ है. निर्मला सीतारमण को भी देश में बजट पेश करने वाली पहली महिला बताया जा रहा है जब कि 1970 में इंदिरा गांधी वित्त मंत्री की हैसियत से बजट पेश कर चुकी हैं.


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नये तेवर के साथ 19 अपैल 2018 को ही स्टडी इन इंडिया प्रोग्राम प्रारंभ किया गया था. जरूरत तो इस बात की थी कि यह बताया जाता कि सालभर के बाद इसने दुनिया के अन्य देशों के छात्रों को कितना आकर्षित किया. इसका मूल्यांकन किये बिना इस योजना के भविष्य को लेकर किसी भी तरह की आश्वस्ति पैदा नहीं हो सकती है.
गुटनिरपेक्ष आंदोलन जब मजबूत था तब भारत मित्र देशों के छात्रो के आकर्षण का बड़ा केंद्र था. अनेक द्विपक्षीय समझौतों के तहत कई देशों के छात्रों के लिए भारत में विशेष अवसर दिये जाते थे. गुटनिरपेक्ष आंदोलन के कमजोर पड़ने के साथ कुछ ही अफ्रीकी और एशियन देश ऐसे हैं जिसके छात्र पढ़ने के लिए भारत आते रहे हैं. भारत के कुछ पड़ोसी देशों के लिए तो भारत ही वह जगह है जहां उच्च शिक्षा के अवसर उपलब्ध हैं.
भारत को अपनी हायर एजुकेशनल संस्थाओं की विश्व रैंकिंग में सुधार के लिए इससे बड़ा अवसर मिल सकता है. यह तभी संभव है जब भारत की इन संस्थाओं के शिक्षण का स्तर उन्नत हो और वह दुनिया के बड़े संस्थानों से टक्कर लेने की क्षमता का विकास कर लें.
भारत की हालत यह है कि यहां के छात्र बेहतर शिक्षा के लिए विदेशों को अपनी पहली पसंद मानते हैं. दुनिया के छोटे से छोटे देशों में भारतीय छात्रों की बढ़ती संख्या बताती है कि हमारे शिक्षण संस्थाओं को आत्ममंथन करने की जरूरत है. वास्तविकताओं को स्वीकार किये बगैर शिक्षा के क्षेत्र में कोई भी बड़ी पहल कारगर नतीजे शायद ही दे सके. यदि नई शिक्षा नीति के प्रारूप को देखा जाये तो उससे किसी तरह की उम्मीद पैदा नहीं हो सकती है.
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शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार अपने पूर्व के वैधानिक तरीके से अलग नजरिया अपनाती इस प्रारूप में दिख रही है. इसकी आलोचना भी खूब हो रही है. दुनिया के विश्वविद्यालयों और अन्य संस्थानों का आंतरिक माहौल लोकतांत्रिक बनाये रखने के सचेष्ट प्रयास किये जाते हैं.
शोध के क्षेत्र में पूरा खुला माहौल उपलब्ध कराया जाता है और हर तरह के विचारों को पल्लवित और पुष्पित होने का माहौल बनाया गया है. लोकतंत्र को विचारों के टकराव का केंद्र बना कर उन देशों में अनेक उपलब्धि हासिल किया है. भारत जैसे देश के सामने यह एक बड़ी चुनौती है.
भारत का सिकुड़ता लोकतांत्रिक स्पेस खुले विमर्श और असहमति के विचारों के लिए सामाजिक बौद्धिक संदर्भ से वंचित किये जाने के संकट से गुजर रहा है. शिक्षा नीति के प्रारूप का राजनीतिक संदेश भी इसी को पुष्ट करता है. हो सकता है गरीब देशों के छात्र स्कॉलरशिप के कारण आकर्षत हों. लेकिन इससे ही मकसद हासिल नहीं किया जा सकता है.
इसके लिए कैंपस को लोकतांत्रिक उड़ान भरने और सामाजिक विविधाओं के लिए स्पेस देने का उन्मुक्त वातावरण भी प्रदान करना होगा. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्याय को लेकर जिस तरह की धारणा प्रचारित की गयी है. और उससे दुनिया भर में भारत के शिक्षण कैंपसों को लेकर सवाल उठे हैं, वह भी इस राह के लिए एक बड़ी बाधा है. जेएनयू दुनिया भर में बौद्धिक स्वायत्तता और बहुलता के लिए अपनी अलग छवि रखता है.
इस संदर्भ में एक और बड़ी परिघटना ने अनेक सवालों को जन्म दिया है. वह है, केंद्रीय एचआरडी मंत्रालय का वह फैसला जिसे हर छात्र संदेह से ही देखेगा. इस फैसले के तहत हायर एजेकुशन के छात्रों के तमाम सोशल मीडिया कांटैक्ट को मंत्रालय से जोड़ने का निर्देश है.
सवाल उठे हैं कि क्या केंद्र सरकार छात्रों की गतिविधियों और उनके विचारों की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने जा रही है. हालांकि तर्क तो यह दिया गया है कि सरकार इस प्रयास से बेहतर माहौल प्रदान करेगी. लेकिन इससे संदेह कम नहीं हो रहे हैं. आखिर छात्रों की उन्मुक्त उड़ान पर बंदिश से क्या विदेशी छात्रों को आकर्षित किया जा सकता है. कैंपस में होने वाली गतिविधियों और विमर्श की बहुलता इससे प्रभावित होगी. इस संदेह को कम कर नहीं देखा जा सकता है.
एक और संदर्भ यह है कि पिछले कुछ सालों में दिल्ली में अध्ययनरत अफ्रीकी छात्रों के साथ जिस तरह के व्यवहार हुए हैं, उसका संदेश भी बहुत खराब गया है. पहचान को लेकर जिस तरह का माहौल कैंपसों में बना है वह भी कम चिंता की बात नहीं है. दिल्ली में पढ़ने वाले पूर्वोतर के छात्रों की समस्या भी कम गंभीर नहीं है. अलग पहचान के कारण उन्हें अनेक तरह की सामाजिक प्रताड़नाओं का शिकार होना पड़ता है. उनके लिए जिस तरह का अपमानजनक संबोधन किया जाता है उसका मनोवैज्ञानिक सामाजिक असर बेहद नकारात्मक ही पड़ता है. लगातार कम होती वैज्ञानिक सामाजिक चेतना भी एक बड़ी चुनौती है.
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