
Gyan Ranjan
Ranchi: 15 नवम्बर को झारखंड 22 वर्ष का हो जाएगा. इन 22 वर्षों के झारखंड के इतिहास पर गौर किया जाय तो इस प्रदेश की नियति में मानो राजनीतिक अस्थिरता समायी हुई है. वर्ष 2014 से 2019 के कार्यकाल को छोड़ दें तो इससे पहले के 14 वर्षों में झारखंड ने राजनीतिक अस्थिरता की मिशाल कायम की है. इससे पहले की एक भी सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया. वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव में झामुमो, कांग्रेस और राजद महागठबंधन ने भाजपा को बुरी तरह से पटखनी दी और अपार बहुमत के साथ सरकार बनायी. दो वर्ष तो कोविड काल में ही चला गया. इसके बाद सरकार ने काम करना तो शुरू किया लेकिन जिस तरह से खाना लीज मामले में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के गर्दन पर निलंबन की तलवार लटकी हुई है और इसको लेकर पिछले छह महीने से जिस तरह से राज्य की राजनीति में भूचाल देखने को मिल रहा है वह इस बात की तरफ साफ़ तौर पर इशारा कर रहा है कि यह सूबा एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता की तरफ बढ़ रहा है.
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लंबी लड़ाई के बाद बना है झारखंड
बिहार से झारखंड 15 नवम्बर 2000 को अलग हुआ. इसको लेकर लंबी लड़ाई लड़ी गयी. तब बिहार में इसे लेकर निराशा थी, क्योंकि यह हिस्सा प्रचुर खनिज और प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण था. तब यह कहा जाता था कि बिहार में तो बाद तीन ही चीज बच गए हैं, लालू, बालू और आलू. लेकिन आन्दोलन से उपजे इस प्रदेश के साथ यह विडंबना लगी रही कि 22 वर्षों में 5 वर्ष को छोड़ दिया जाय तो यहाँ सरकारे हमेशा अस्थिर रही. यही वजह है कि 22 वर्षों में इस प्रदेश में 11 मुख्यमंत्री बदले गए. गठबंधन का ऐसा भी प्रयोग इस प्रदेश में हुआ कि एक निर्दलीय को मुख्यमंत्री बनाया गया. इतना ही नहीं निर्दलीय मुख्यमंत्री की सरकार को निर्दलीय मंत्री ही चला रहे थे. भाजपा सबसे लंबे समय तक सत्ता में रही, लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में केवल रघुवर दास ही अपना कार्यकाल पूरा कर सके. बाकी सरकारें बीच में ही धड़ाम होती रहीं. इस बीच कई तरह के गठजोड़ बने. लगभग सभी प्रमुख दलों को यहां कभी न कभी सत्ता में रहने का मौका मिला. पूर्व में क्षेत्रीय दल झारखंड मुक्ति मोर्चा ने भाजपा के साथ मिलकर भी सरकार बनाई. राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का आलम यह रहा कि तीन बार यहाँ राष्ट्रपति शासन लगे.
हेमंत के पास बहुमत पर कुर्सी पर मंडरा रहे हैं खतरा के बादल
पिछले विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को बहुमत मिली और हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री की गद्दी मिली. सामान्य बहुमत से अधिक विधायकों का आंकड़ा होने के कारण अभी उनकी कुर्सी को खतरा नहीं है, लेकिन तकनीकी मामलों में फंसे होने के कारण एक बार फिर से राज्य में राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति बनती दिख रही है. ईडी ने अवैध खनन घोटाला के मामले में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को पूछताछ के लिए बुलाया है. इसके अलावा सीएम तथा खान मंत्री के पद पर रहते हुए अपने नाम से पत्थर खनन लीज लेने संबंधी आरोप में उनकी विधानसभा की सदस्यता पर भी तलवार लटक रही है.राज्यपाल ने इस संबंध में चुनाव आयोग से दोबारा मंतव्य मांगा है. फिलहाल हेमंत सोरेन ईडी के समक्ष पूछताछ के लिए उपस्थित नहीं होंगे. सत्तापक्ष के विधायकों संग बैठक में इससे संबंधित निर्णय हुआ है. इस बीच स्थिति की गंभीरता को भांपते हुए मुख्यमंत्री के राज्य के दौरे के कार्यक्रम निर्धारित किए गए हैं. 11 नवंबर को राज्य विधानसभा का विशेष सत्र आहूत करने का भी निर्णय लिया गया है, जिसमें झारखंड मुक्ति मोर्चा का पसंदीदा एजेंडा 1932 के खतियान के आधार पर झारखंड में स्थानीयता तय करने संबंधी प्रस्ताव पारित कराया जाएगा. ओबीसी का आरक्षण 27 प्रतिशत करने संबंधी विधेयक भी पेश होगा.
सड़क पर शुरू हुआ आन्दोलन
झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस ने विपक्ष पर सरकार को अस्थिर करने का षड्यंत्र रचने का आरोप लगाते हुए उसके खिलाफ आंदोलन की घोषणा की है. इस आन्दोलन की शुरुआत पांच नवंबर को हो गयी है. दूसरी ओर भाजपा ने भी भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाते हुए आंदोलन की घोषणा की है. राज्य की राजनीति गरमाई हुई है. वहीं अवैध खनन और मनी लांड्रिंग की जांच कर रहे ईडी के हाथ सीएम तक पहुंच चुके हैं.
वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर आकलन करें तो यह स्पष्ट होता है कि राज्य में भले ही चुनाव अभी दो वर्ष दूर हों, लेकिन इसकी तैयारी और उससे जुड़े मुद्दे तैयार हो चुके हैं. आनन-फानन में उन मुद्दों पर फैसला कर जहां सत्ता पक्ष अपने आधार वोटरों को जोड़ने की पुख्ता तैयारी कर चुका है. इसमें जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग से सरना धर्म कोड शामिल करने, 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीयता नीति परिभाषित करने का मुद्दा अहम है. ओबीसी आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने का फैसला लेकर उन वर्गों में भी सेंधमारी की कोशिश की जा रही है, जो भविष्य में गठबंधन के साथ आ सकते हैं. इसके मुकाबले मुख्य विरोधी दल भाजपा ने मजबूती से भ्रष्टाचार के मुद्दे को थाम लिया है.
भाजपा ने चरणबद्ध तरीके से आंदोलनात्मक कार्यक्रमों की घोषणा भी कर दी है. परस्पर विरोधी दलों के शक्ति परीक्षण की कवायद के बीच सबसे अधिक जोर-आजमाइश जनजातीय समुदाय को अपने साथ करने की होगी. यही वजह है कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन यह प्रचारित करने में जुटे हैं कि आदिवासी होने के कारण उन्हें परेशान किया जा रहा है. ईडी के समन के बाद वे जिलों का भ्रमण कर माहौल को अपने पक्ष में बनाने की कोशिशों में हैं. यह इस लिहाज से आवश्यक है कि राज्य की 81 विधानसभा सीटों में से 28 सीटें आदिवासी सुरक्षित हैं. अभी 26 सीटें झामुमो-कांग्रेस गठबंधन के पास है. दोनों दलों के बीच का तालमेल भी फिलहाल खतरे में नहीं दिखता, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर पस्त कांग्रेस को मजबूत राजनीतिक सहयोगियों की आवश्यकता है.