
Shrinivas
हां, मैं आंदोलनजीवी हूं और देश के प्रधानमंत्री द्वारा इस शब्द को नकारात्मक अर्थ में प्रयोग करने के बावजूद इस पर शर्मिन्दा नहीं हूं, बल्कि इस पर गर्व करता हूं.
हालांकि ‘आंदोलनजीवी’ पर बहुत शोर होने के बाद प्रधानमंत्री श्री मोदी ने मानो सफाई देते हुए कहा- आंदोलनकारी और आंदोलनजीवी- यानी जो आंदोलन करते हैं और जो आंदोलन के नाम पर जीते हैं- में अंतर किया जाना चाहिए. मुझे लगा, बात में कुछ दम है. तो इस हिसाब से मैं सही मायनों में ‘आंदोलनजीवी’ हूं. इसलिए कि ’74 में जेल गये आंदोलनकारियों को बिहार की एनडीए सरकार ने मासिक पेंशन देने का जो फैसला किया, उसका लाभ मुझे भी मिल रहा है, बल्कि आज वही मेरी आय का एकमात्र स्रोत है.
अब मेरी जिज्ञासा है कि श्री मोदी बिहार की नीतीश सरकार (जिसमें भाजपा भी शामिल थी) के उस फैसले को क्या मानते हैं? यह भी कि उस दौर में जेल गये संघ और भाजपा के कार्यकर्ता ‘जेपी सेनानी पेंशन’ योजना का लाभ ले रहे हैं या नहीं? और ले रहे हैं, तो मोदी जी उनको आंदोलनकारी मानते हैं या आंदोलनजीवी? फिर एक जानकार (आन्दोलन और संघर्ष वाहिनी में साथ रहे और ’74-77 में लम्बी जेल यात्रायें कर चुके एक मित्र अशोक वर्मा ) ने बताया कि मोदी चौहत्तर आंदोलनकारियों और आपातकाल भुगतने वालों को आंदोलनजीवी ही मानते हैं.
यह भी कि संघ के लोग केंद्रीय पेंशन योजना के लिए मोदी के पास नाक रगड़ते थक चुके हैं. भाजपा के पूर्व केंद्रीय संगठन मंत्री रामलाल (संगठन मंत्री का पद संघ के लिए आरक्षित होता है) इस मांग को लेकर मोदी से मिले थे. मोदी ने टका-सा जवाब दिया था कि ‘क्या संघ के लोग पेंशन के लिए जेल गये थे? पेंशन की मांग क्षुद्र स्वार्थ है.’ इसके बाद किसी संघी की मोदी के समक्ष इस मांग को रखने की हिम्मत नहीं हुई.
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नरेंद्र मोदी का यह स्टैंड मुझे आपत्तिजनक नहीं लगा, बल्कि इसके लिए मैं उनकी प्रशंसा करने को तैयार हूं. क्योंकि यह एक नीतिगत स्टैंड है. हमारे समूह में भी अनेक साथी इस तरह की पेंशन को गलत मानते हैं.
लेकिन क्या श्री मोदी ने सचमुच ऐसे पेंशनधारियों को ही आंदोलनजीवी कहा था? मुझे संदेह है. ध्यान रहे कि उन्होंने यह बात अभी जारी किसान आंदोलन के सन्दर्भ में कही थी. तो पूछा जा सकता है कि उस आंदोलन (जिसे मोदी पवित्र भी बता चुके हैं) में कौन और कितने ‘आंदोलनजीवी’ हैं, जो उस आंदोलन का आर्थिक लाभ ले रहे हैं; या पहले किसी आंदोलन में रहने के एवज में पेंशन पा रहे हैं?
सच तो यही है कि मोदी जी को (और लगभग हर निरंकुश व असहिष्णु शासक को) अपने और अपनी अपनी सरकार के हर विरोधी से परेशानी होती है. इसलिए आंदोलन से चिढ़ होती है. ऐसा नहीं होता और मोदी सचमुच इस आंदोलन को ‘पवित्र’ मानते होते, तो आंदोलनकारियों को नासमझ, बहकाये हुए, खालिस्तानी, विदेश से की जा रही साजिश में शामिल, कांग्रेसी या माओवादी आदि साबित करने की जो मुहिम चलती रही है (जो उनकी जानकारी में और उनके मुरीद ही चला रहे हैं), उस पर भी तो नाराजगी दिखाते.
इस क्रम में जिन आंदोलनकारी किसानों की मौत हुई है, उनके लिए दो शब्द तो कहते; आंसू बहाने की तो बात ही छोड़ ही दें. इसलिए यह मानाने के पर्याप्त कारण हैं कि मोदी असल में आंदोलन को ही गलत मानते हैं, कम से कम अब. क्योंकि उनके दल/संगठन के हजारों लोग/नेता बिहार या जेपी आंदोलन सहित अनेक आंदोलनों में शामिल रहे हैं. मेरी जानकारी में बिहार में वह पेंशन पानेवालों में संघ/भाजपा से सम्बद्ध लोगों की बहुतायत है.
मगर श्री मोदी और उनकी जमात के लोग मूलतः प्रतिगामी विचार के हैं, जो सकारात्मक बदलाव, विचार-विमर्श को गैरजरूरी मानते हैं. देश और विकास विरोधी कृत्य भी. इनके लिए आंदोलन महज सत्ता प्राप्ति का जरिया है. दरअसल कोई निरंकुश शासक न तो आंदोलनकारी को पसंद नहीं करता है, न आंदोलनजीवी को.
मगर मैं और मेरे जैसे बहुतेरे लोग आंदोलनजीवी हैं, आंदोलनकारी भी. हमारे लिए इन दो शब्दों में कोई अंतर नहीं है. अपनी पीढ़ी के उन हजारों (या शायद लाखों) युवाओं मैं भी शामिल था, जो 1974 में बिना किसी निजी स्वार्थ के, सड़कों पर उतर गये थे. बहत्तर वर्ष के एक युवा वृद्ध के आह्वान पर अपना घर-बार, पढाई और कैरियर की चिंता छोड़ कर आंदोलन में कूद पड़े थे.
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मैं पूरे ग्यारह साल (1974 से 1985 तक) सक्रिय आंदोलनकारी या आंदोलनजीवी रहा. और भले ही उससे देश और समाज पर कोई सकारात्मक प्रभाव न पड़ा हो, मुझे इस बात पर गर्व है कि मैं भी समाज के बदलाव में कुछ योगदान दे सका. मेरे अब तक के जीवन में उस दौर से बेहतर याद करने को कुछ नहीं है. उन ग्यारह वर्षों के दौरान भी देश के किसी कोने में अन्याय के खिलाफ और अपने अधिकारों के लिए कोई आन्दोलन हुआ, हम उसके साथ रहे.
मुझे अफसोस है कि ’85 के बाद लम्बे समय तक, जब एक अखबार की नौकरी से बंध गया, मैं किसी आंदोलन में सक्रिय भागीदार नहीं हो सका. मैं 2008 में अखबार से मुक्त हुआ. और तब से, जब भी मौका मिला, जब भी लगा कि उस समय की सरकार का कोई फैसला जनविरोधी है, उसके खिलाफ मुखर रहा.
और आज भी देश और दुनिया के किसी भी हिस्से में यदि कोई समुदाय/तबका अपने हक़ के लिए आंदोलन करने को विवश होता है, तो हमारे जैसे सभी लोग उनके साथ होते हैं. हम ऐसा इसलिए करते हैं कि हम मानव मात्र की बेहतरी को लक्ष्य मानते हैं, समता, न्याय और अपनत्व पर आधारित मानव समाज के निर्माण का स्वप्न देखते हैं.
हम कोई विशिष्ठ लोग नहीं हैं. एक साधारण आदमी (और महिला) भी सामान्यतया इसी भावना, मानसिकता से संचालित होता है. तभी तो देश के किसी भी हिस्से में प्राकृतिक त्रासदी होती है, सभी उससे प्रभावित लोगों की मदद को तत्पर हो उठाते है.
अभी अभी कोरोना के कारण हुए लॉकडाउन के दौरान जब लाखों लोग परेशान होकर सड़कों पर निकलने को विवश हो गये थे, तो जिससे जो बन पड़ा, उनके लिए किया. इसलिए कि उनके अंदर की अभी संवेदना बची हुई है.
तो, आंदोलनजीवी होने के साथ ही हम आंदोलनकारी भी हैं. किसी निरंकुश सत्ता के गलत फैसले, जुल्म और गैरबराबरी के खिलाफ संघर्षरत हर समूह के साथ रहे हैं, रहेंगे.
वे श्रीलंका के तमिल हों, असम में बहिरागतों के खिलाफ आंदोलन कर रहे युवा हों, मुंबई/महाराष्ट्र में भाषा के नाम पर प्रताड़ित हो रहे बिहारी, झारखंडी या तमिल हों… फिलिस्तीनी हों, रोहिंगिया हों या कश्मीरी पंडित, या विकास के नाम पर विस्थापन की मार झेल रहे और अपनी जमीन बचाए के लिए लड़ रहेआदिवासी हों.
ऐसे ही आंदोलनों से समाज और देश परिपक्व और बेहतर बनता है. और किसी के चाहने या भय से यह सिलसिला रुकता भी नहीं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, चौहत्तर के आंदोलनकारी व समाजकर्मी हैं. विभिन्न विषयों पर उनके चिंतन को देशभर में गंभीरता से लिया जाता है)
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