
Faisal Anurag
एम्स के चौथे तल्ले से छलांग लगा कर युवा पत्रकार तरूण सिसोदिया ने आत्महत्या कर ली. इस आत्महत्या के अनेक पहलू हैं. जो किसी भी समाज को बेचैन करने के लिए काफी हैं. तरूण कोरोना पॉजिटिव पाए गए थे. वे हेल्थ बीट के दिल्ली के प्रतिभाशाली रिपोर्टर थे. और इस कारण उन्हें जरूर पता होगा कि कोरोना वायरस में मृत्यु की संभावना का प्रतिशत बेहद कम है. बावजूद उन्होंने एक सार्वजनिक जगह से आत्महत्या की. हाल ही में उन्हें नौकरी से छंटनी का शिकार होना पड़ा था. दैनिक भास्कर से वे जुड़े हुए थे. महामारी के बीच छंटनी की त्रासदी कितनी भयावह हो सकती है,
इसका उदाहरण है यह अत्महत्या. हालांकि इस आत्महत्या की जांच के लिए समिति का गठन कर दिया गया है. उनके अवसाद के कारणों का जांच किस तरह की जाएगी यह नहीं बताया गया है. तरूण की घटना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि नौकरीपेशा लोग किस मानसिक प्रताड़ना के दौर से गुजर रहे हैं. और नौकरी जाने का अंदेशा डन्हें किस तरह डरा रहा है. शायद ही कोई सेक्टर हो जिसके कर्मचारी इस डर के शिकार नहीं हों. माहामारी के दौर में बिना वेतना या आधे वेतन के कारण जिस मानसिक हालत से गुजरना पड़ा है उस पर समाज और राजनीति विचार तक करने को तैयार नहीं है.
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भारत में पिछले तीन महीनों की आत्महत्याओं के आंकड़े बेहद भयावह हैं. इनमें से आधे से ज्यादा का कारण रोजगारहीनता है. आनलॉक की प्रक्रिया के बावजूद विकास की गति तेज होती नहीं दिख रही है. हालांकि आंकड़ों के खेल के सहारे यह बताने का प्रयास किया जा रहा है कि भारत की जीडीपी कैसे पटरी पर आ रही है. दावों और लोगों के जीवन की हकीकत के बीच फासला बड़ा है. पहले के दौर की मीडिया इस पर तथ्यपरक रिपोर्ट के सहारे राजनीतिक विमर्श की दिशा तय करती थी.
लेकिन आज की मुख्यधारा मीडिया के लिए न तो बेरोजगारी कोई बड़ा सवाल है और न ही रोजगारहीनता. लोगों की सैलरियों की कटौती का सवाल तो बहस के दायरे में भी नहीं है. दिल्ली सहित अनेक महानगरों में पिछले डेढ महीने में जितने किराए के घर खाली हुए हैं वह भी बताता है कि कल तक जो मध्यवर्ग सुविधाओं में जी रहा था, वह अब किराया तक देने की स्थिति में नहीं है. यह स्थिति केवल महानगरों की ही नहीं है.
सरकारी क्षेत्र के निजीकरण की तेज गति का प्रभाव तो उन युवा सपनों पर दिखने लगा है, जो नौकरियों की लंबे समय से तैयारी करते हुए अपने युवाकाल को होम कर रहे हैं. ऐसी दशा में युवाओं का भरोसा यदि अवसाद में बदलने लगे तो उसकी भयावह त्रासदी के खतरों को आंका जा सकता है. श्रमिकों की वापसी के बाद राज्य सरकारों के उन दावों की हकीकत भी समाने आने लगी है जिसमें गांवों में ही रोजगार देने की बात कही गयी थी. इस हकीकत को नजरअंदाज करना घातक साबित हो रहा है कि केवल मनरेगा जैसी योजना युवा ताकतों को लंबे समय तक बांध कर रख सकती है.
कोरोना त्रासदी के बीच संभावना थी कि युवाओं के लिए सरकार नई रोजगारी नीति पेश कर अमल में लाएगी. लेकिन इसे पूरी तरह नजरअंदाज किया गया. अमेरिका या जर्मनी जैसे अनेक देशों ने तो अपने बेरोजगारों और रेाजगारहीन हुए लोगों को फौरी तौर पर आर्थिक मदद की. अमेरिका ने बेरोजगारों को भत्ते दिए और इस योजना में चार करोड़ लोगों को शामिल किया. जर्मनी का अनुभव कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है.
एक रिपोर्ट के अनुसार जर्मनी ने सारे नियोक्ताओं यानि कंपनियों दफ्तरों और दुकानों के मालिकों से कहा कि उनके पे-रोल में जितने भी लोग हैं, उनसे केवल एक फार्म भरवा लें. इसके लिए किसी तरह के प्रमाणपत्र की जरूरत भी नहीं समझी गयी. सभी को जो वेतन मिल रहा था, उसका 60 से 80 प्रतिशत तक उनके खाते में जाने लगा. बेशक वेतन 100 फीसदी नहीं मिला. लेकिन नौकरी भी नहीं छीनी गयी. जर्मनी में एक करोड़ लोगों को इस स्कीम का लाभ मिला है.
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इस दौर में भारत में 14 करोड़ लोग बेरोजगार हुए. लेकिन उनके लिए इस तरह की किसी योजना को सुना तक नहीं गया. केंद्र ने कंपनियों से जरूरी आग्रह किया कि वे न तो वेतन रोकें और न ही रोजगार छीनें. यह आग्रह था जिसे कंपनियों ने अमल करना जरूर नहीं समझा. इस तरह का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि इस दौर में कितने लोगों के वेतन रोके गए. या उसमें कटौती की गयी. इसका एक बड़ा कारण तो रोजगार पर राजनीतिक प्रभाव के कम होने का मामला भी है. दुनिया के कई देश, जिसमें फ्रांस भी शामिल है, बेरोजगारों के आंदोलनों के कारण बुरी तरह परेशान है. फ्रांस के प्रधानमंत्री एडवर्ड फिलिप को शुक्रवार को अपने पद से इस्तीफा देने के लिए बाध्य होना पड़ा. क्योंकि उन पर माहामारी प्रबंधन की अकुशलता का आरोप था. जिसमें बेरेाजगारी का संकट भी शामिल है.
तो क्या आत्महत्याओं के लिए विवश हो रहे लोगों के सवाल को सरकार गंभीरता से लेगी. और अवसाद के रोजगार से जुड़े कारणों के निदान के लिए त्वरित कदम उठाएगी. एक त्रासद संभावना कुवैत जैसे देशों में बन रही है. जहां के नए कानूनो के कारण भारी संख्या में मजदूरो की देश वापसी हो सकती है. देश में बेरोजगारी की भयावहता इससे और बढ़ सकती है. भारत में तो बेरोजगारी ऐसा कोई राजनीतिक सवाल नहीं बन पा रही है कि उससे किसी भी शासक को डरने की जरूरत हो. लेकिन आत्महत्याओं का दर्द कहीं ज्यादा व्यापक असर डाल सकता है. इसे नजरअंदाज करना खतरनाक होगा.
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