
जयपाल सिंह मुंडा एक बहुमुखी प्रतिभावाले और झारखंड के इतिहास में एक ऐसे किरदार हैं जिनको भुलाया नहीं जा सकता. एक साधारण आदिवासी गांव से निकलकर वे इंग्लैंड तक पहुंचे और वहीं उनकी शिक्षा दीक्षा हुई. आईसीएस में प्रवेश के बाद भी उन्होंने उसे इसलिए छोड़ दिया कि वे हॉकी खेलना चाहते थे. उनके ही नेतृत्व में हॉकी में भारत 1928 की ओलिंपक का गोल्ड हासिल किया. फिर वे झारखंड लौटे और अलग राज्य की राजनीति को एक नयी दिशा दी. तीन जनवरी को उनकी जयंती है. यहां हम उनके जीवन से जुड़े दिलचस्प पहलुओं को पेश कर रहे हैं.
अश्विनी कुमार पंकज
Ranchi : रोमन कैथोलिक मिशन के फादर डी माउजा की पहल पर आदिवासी महासभा के नेताओं के साथ जयपाल सिंह की पहली बैठक हुई. बैठक में थियोडोर सुरीन, राय साहब बंदी राम उरांव, पॉल दयाल, ठेबले उरांव, इग्नेस बेक, जुलियस तिग्गा आदि नेता मौजूद थे. उन्होंने आदिवासी की जय, जय आदिवासी के नारे के साथ गर्मजोशी से जयपाल का स्वागत किया.
सबने इस बैठक में आदिवासियों के शोषण, बाहरी लोगों द्वारा झारखंड की लूट और कांग्रेस के नेतृत्व में हो रहे भेदभाव और उपेक्षा पर अपनी अपनी बात रखी. उनसे आग्रह किया कि वे ऑक्सफोर्ड पढ़े लिखे हैं, उन सबसे ज्यादा सक्षम है. समस्त झारखंड में लोग उन्हें जानते हैं इसलिए वे आदिवासी महासभा की बागडोर अपने हाथ में लें और आदिवासी अधिकार की लड़ाई को अपने नेतृत्व से आगे ले जाए. इस अग्रह को जयपाल ने स्वीकार कर लिया. तय हुआ कि 20 जनवरी 1939 शुक्रवार के दिन आदिवासी महासभा रांची में एक विशाल आमसभा बुलाएगी जिसकी अध्यक्षता जयपाल सिंह मुंडा करेंगे और उसी सभा में उन्हें महासभा का नेतृत्व सौंपा जायेगा.
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उत्साह से भरे और नितांत नई राजनीतिक भूमिका और जिम्मेदारी के बारे में सोच विचार करने वे दार्जिलिंग पहुंचे. सास एग्नेस मजुमदार आदिवासी राजनीति की बात करते ही भड़क गई. उसने साफ साफ कह दिया कि कांग्रेस विरोधी किसी भी राजनीति में वे ना ही पड़े. लेकिन पत्नी तारा ने उनका साथ दिया लगभग उनकी मां के अंदाज में ही बोली, प्रिय, वहीं करो जिसमें तुमको खुशी मिलती हो.
आदिवासी महासभा को संबोधित करने और उसमें शामिल होने के लिए 19 जनवरी को जयपाल सिंह मुंडा रांची पहुंच गए. भारत के आदिवासी और झारखंड आंदोलन के लिए यह एक ऐतिहासिक अवसर था. इससे पहले देश में इतनी बड़ी आदिवासी रैली और जनसभा का आयोजन कहीं नहीं हुआ था. 20 जनवरी 1939 के दिन पूरा रांची आदिवासियों के विशाल हुजूम से पट गया. दूरदराज के लोग चार पांच दिन पहले से ही आदिवासी सभा भवन के मैदान (अब हिंदपीढी रांची का इलाका) में डेरा डाल चुके थे. बिहार और दिल्ली के कांग्रेसी नेता और मीडिया भौच्चक थे. करीब लाख से भी ज्यादा लोग आदिवासी महासभा के आह्वान पर विदेशी तुल्य ईसाई आदिवासी जयपाल सिंह मुंडा को सुनने आयेंगे. इसकी कल्पना किसी को भी नहीं थी. रांची का कमिश्नर, डिप्टी कमिश्नर और पुलिस सुपरिटेंडेंट परेशान थे. उन्हें लग रहा था कि कहीं जयपाल सिंह बोल्शेविक तो नहीं है.
इस ऐतिहासिक रैली और जनसभा करते हुए जयपाल ने लिखा है, कांग्रेसी लोग भ्रम में थे. उन्होंने मुझे समझने में भारी भूल की. उन्हें लगा था कि ऑक्सफोर्ड लंदन रिटर्न आदमी क्या गांवों-जंगलों में घूम पाएगा. मैंने इसके कुछ ही दिनों बाद पूरे झारखंड का तूफानी दौरा कर उनकी सारी भविष्यवाणियों पर पानी फेर दिया.
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20 जनवरी को उन्होंने विशाल आदिवासी जनसभा को संबोधित करते हुए कहा, यह मेरे जीवन के सबसे महत्वपूर्ण अवसरों में से एक है. मैं लगभग बीस साल से आप लोगों के बीच में नहीं था. अब आप हमारी आर्थिक और राजनैतिक आजादी के लिए, आगे आने के संघर्ष में मुझसे नेतृत्व करने के लिए कह रहे हैं. आप मुझे अपने एक ऐसे सेवक, जो आपकी सेवा करे मुझे आमंत्रित कर मुझे सर्वोच्च सम्मान दे रहे हैं. मेरे गुरू स्व केनोन कॉसग्रेव की अंतिम इच्छाओं में से एक यह थी कि मैं छोटानागपुर वापस आऊं और अपने लोगों को भारत के राष्ट्रीय जीवन में में सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए उनका नेतृत्व करूं.
मैं पूर्ण निष्ठा के साथ स्वयं को उस कार्य के लिए जो आप मुझे सौंप दे रहे हैं, उसके महती उत्तरदायित्व तथा महान कठिनाइयों को पूरी तरह समझते हुए, समर्पित करता हूं. यह मेरा सतत प्रयत्न रहेगा कि मैं अपने कर्त्तव्य का निर्वाहन पूरी सच्चाई संपूर्णता तथा शुद्ध अंत:करण के साथ करूं. मेरे ऊपर विश्वास करने के लिए मैं हमेशा आपको धन्यवाद करता हूं. , आपका निष्ठावान समर्थन हमेशा मेरी शक्ति एवं प्रेरणा रहेगा.
आदिवासी महासभा को नया करिश्माई नेतृत्व मिल गया था. जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व से आदिवासी जन गोलबंदी और संगठित और मजबूत और एकताबदध हो गयी. दो महीने बाद मई 1939 में बिहार प्रांत के जिला परिषदों का चुनाव होना था. जयपाल संगठन के साथ जोशोखरोश के साथ चुनाव की तैयारियों में जुट गए. लेकिन चुनाव के सप्ताह दस दिन पहले ही ओडिशा झारखंड की सीमा पर बसे गांगपुर स्टेट के सिमको गांव में 25 अप्रैल 1939 को एक लोमहर्षक घटना हो गयी.
हत्यारी ब्रिटिश सरकार ने धोखे से हजारों आदिवासियों को सिमको में बुलाकर उन्हें चारों ओर से घेर लिया और अंधाधुंध फायरिंग कर सैकड़ों को मार डाला. इस जनसंहार में उरांव, खड़िया, मुंडा आदिवासी समुदायों के लोग सामूहिक रूप से शहीद हुए थे. उस इलाके के 36 मौजा के आदिवासी सिमको के निर्मल मुंडा के नेतृत्व में गांगपुर स्टेट द्वारा कई गुणा लगान बढ़ा दिए जाने का शांतिपूर्ण विरोध कर रहे थे. महासभा का अध्यक्ष बनते और राजनीति में कदम रखते ही हुई इस लोमहर्षक घटना ने जयपाल को हिलाकर रख दिया.
(मरड़ गोमके जयपाल सिंह मुंडा पुस्तक से साभार)