
Ohdar Anam
झारखंड के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब झारखंड के अखरा में सरहुल पर्व में मांदर की आवाज और बांसुरी की धुन सुनायी नही दी. नगाड़े की गूंज तो दब ही गयी. विश्व में महामारी का रूप धारण किये “कोरोना वायरस” के डर से यहां के अखरा सुने हो गये. झारखंडी जानते है कि “जे नाची से बांची” इसी अंदाज से वे हर पर्व त्यौहार में नाचते गाते हैं.
और उमंग से प्रकृति की गोद में रहते हैं. प्रकृति का दिया हुआ कन्दमूल खाकर हड़िया पीकर मुग्ध होकर जीवन-यापन करते हैं. झारखंड की संस्कृति प्रकृति से जुडी है. यंहा का हर पर्व-त्योहार प्रकृति से जुड़ा है. चाहे वह सरहुल हो, करमा हो, या फिर टुसु हो. दो दिन पहले सरहुल का पर्व था. पूरे झारखंड में उल्लास का दिन था. नाचने गाने का दिन था. लेकिन प्रकृति पर्व सरहुल सुना सुना आया और चला भी गया.
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जैसे की अभी भी कोई अनहोनी होने वाली है. जब सरहुल आता था तो अखरा गुलजार रहता था. और यहां का वो गीत नागपुर कर कोरा…बजता था, तो लगता था कि हमारी झारखंड की धरती में कहीं कोई दुख है ही नहीं.
खोरठा का वो गीत ” मांदर बाजे रे.. ढोल बाजे रे…अखरे गहदम झुमईर लागे रे.. “जिसमे यंहा के सरहुल पर्व की ख़ुशी बतायी गयी है, कि कैसे जब सरहुल आता है तो हर झारखंडी ख़ुशी व उमंग में सरोबार हो जाता है. और अखरा में मांदर और ढोल के बीच गहदम झुमर लग जाता है. जहां समाज का हर वर्ग बुजुर्ग, युवा, महिला-पुरुष से लेकर बच्चे तक भेदभाव भुलाकर रिझरंग से सरोबार होकर एक साथ नाचते गाते हैं.
झारखंड समाज में कोई बड़ा-छोटा नहीं होता है. खास कर अखरा में. इसी लिए तो यहां के लोगों के लिए कहा गया है कि झारखंड में चलना ही नृत्य और बोलना ही गीत है. लेकिन कोरोना वायरस तो यंहा के लोगो को न ही चलने दे रहा है न बोलने दे रहा है.
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राजभवन का वो बिरसा मंडप जहां सरहुल पर्व की पूर्व संध्या में झारखंड की कला संस्क़ृति देखते बनती थी. एक ही मंडप झारखंड की विविन्न नौ भाषाओं के कलाकार एक साथ नाचते गाते थे, वो मंडप वीरान रहा. जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग का अखरा उदास रहा.
जहां हर बार झारखंड के मंत्री, शिक्षाविद, राज्यपाल शोधार्थी एक साथ नाचते-गाते थे. रांची का सिरम टोली केंद्रीय सरना स्थल जंहा सरहुल जुलूस का मिलन होता था, हातमा का मुख्य सरना स्थल जहां चना गुड़ का प्रसाद मिलता था. और सखुवा का फूल खोंसी होता था. इस बार सब सुना सुना रह गये.
जबकि सरहुल पर्व प्रकृति पर्व है. यह आपसी प्रेम व भाईचारे को बढ़ावा देता है. साथ ही यह हमें जंगल जमीन से प्रेम करना सिखाता है. यह त्योहार मानव जीवन का प्रकृति के साथ जीवंत रिश्तों को ईमानदारी के साथ बरकरार रखने के लिए सिखाता है. यही धरोहर मानव सभ्यता संस्कृति एवं पर्यावरण की रीढ़ है. यही वह ऋतु है जब प्रकृति के साथ-साथ समस्त जीव-जगत में नयी ऊर्जा का संचार होता है.
झारखंडी भाषा संस्कृति और परंपराओं के अनुसार सरहुल फलतः धरती और प्रकृति से बेहतर फसल व फल प्राप्ति का त्योहार माना जाता है. इसी दिन से नया साल माना जाता है. इसी दिन से खेती की नई फसल की बुआई की जाती है. इसलिए इसे ढोल-मांदर नगाड़ो के साथ नाच गाकर मनाते हैं. कि साल अच्छा बीते.
अच्छी बारिश हो. फसल की ऊपज अच्छी हो. लेकिन इस साल झारखंड का अखरा सरहुल में सुना सुना रहा. मांदर चुप-चाप बैठ गया, ढोल नगाड़े सहम गये, बांसुरी चुप हो गयी. कहीं ये भीषण आपदा का संकेत तो नहीं है.
ये उस बात का संकेत भी हो सकता है कि हमने सरहुल के प्रकृति की रक्षा का संदेश भुला दिया. अगर नहीं भुलाते तो शायद कोरोना के वायरस से बचा जा सकता था. क्योंकि कहीं न कहीं से कोरोना वायरस के फैलने की वजह प्रकृति से खिलवाड़ भी बताया जा रहा है. जिससे हमें सरहुल और उसके गीत बार-बार सचेत करते रहे हैं.
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(लेखक शोधार्थी, जनजातीय एंव छेत्रीय भाषा विभाग रांची- खोरठा से संबद्ध हैं)