
- पुण्यतिथि पर विशेष
Naveen Sharma
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उग्र क्रांतिकारी आंदोलन ने अंग्रेजी हुकूमत की नाक में दम कर रखा था. इन्हीं क्रांतिकारियों में विनायक दामोदर सावरकर (वीडी सावरकर) ऊर्फ वीर सावरकर भी शामिल हैं. सावरकर अच्छे कवि भी थे. “अंडमान की जेल में रहते हुए पत्थर के टुकड़ों को कलम बना कर जिसने 6000 कविताएं दीवार पर लिखीं और उनकी कंठस्थ किया. यही नहीं पाँच मौलिक पुस्तकें वीर सावरकर के खाते में हैं. इनमें से एक किताब जिसमें इन्होंने 1857 के विद्रोह को पहले भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के रूप में स्थापित किया महत्वपूर्ण है.


सावरकर दुनिया के शायद अकेले स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्हें दो-दो बार आजीवन कारावास की सजा मिली. वे हिंदू धर्म में जातिवाद की परंपरा का विनाश करना चाहते थे. सावरकर के लिये हिंदुत्व का मतलब ही एक हिंदू प्रधान देश का निर्माण करना था. वे भारत में सिर्फ और सिर्फ हिंदू धर्म चाहते थे, उनका ऐसा मानना था की भारत हिन्दू प्रधान देश हो और देश में सभी लोग भले ही अलग-अलग जाति के रहते हो लेकिन विश्व में भारत को एक हिंदू राष्ट्र के रूप में ही पहचान मिलनी चाहिये. इसके लिये उन्होंने अपने जीवन में काफी प्रयत्न भी किए.




विनायक दामोदर सावरकर का जन्म मराठी चित्पावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम दामोदर और माता का नाम राधाबाई सावरकर था. उनका परिवार महाराष्ट्र के नासिक शहर के पास भगुर ग्राम में रहता था.उनके और तीन भाई –बहन भी है, जिनमें से दो भाई गणेश और नारायण एवं एक बहन मैना है.
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सबसे पहले विदेशी वस्तुओं व कपड़ों का बहिष्कार
1901 में विनायक का विवाह यमुनाबाई से हुआ, जो रामचंद्र त्रिंबक चिपलूनकर की बेटी थीं. उन्होंने ही विनायक की यूनिवर्सिटी पढाई में सहायता की थी. बाद में 1902 में उन्होंने पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज में एडमिशन लिया. युवा विनायक को नयी पीढ़ी के राजनेता जैसे बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चन्द्र पाल और लाला लाजपत राय से काफी प्रेरणा मिली. ये तीनों नेता उस समय बंगाल विभाजन के विरोध में स्वदेशी अभियान चला रहे थे. सावरकर भी स्वतंत्रता अभियान में शामिल हुए थे.
1905 में दशहरा उत्सव के समय विनायक ने विदेशी वस्तुओ और कपड़ो का बहिष्कार करने की ठानी और उन्हें जलाया.
अभिनव भारत की स्थापना की
इसी के साथ उन्होंने अपने कुछ सहयोगियों और मित्रों के साथ मिलकर राजनीतिक दल अभिनव भारत की स्थापना की. राजनीतिक गतिविधियों की वजह से उन्हें कॉलेज से निकाला गया, लेकिन उन्हें बैचलर ऑफ़ आर्ट की डिग्री लेने की इज़ाज़त थी. अपनी डिग्री की पढाई पूरी करने के बाद लंदन के इंडिया हाउस के श्यामजी कृष्णा वर्मा ने कानून की पढाई पूरी करने के लिए विनायक को इंग्लैंड भेजने में सहायता की. उन्होंने विनायक को छात्रवृत्ति भी दिलवाई. उसी समय तिलक के नेतृत्व में गरम दल की स्थापना की गयी थी.
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इंडिया हाउस से जुड़कर क्रांतिकारियों के संपर्क में आए
सावरकर के क्रांतिकारी अभियान की शुरुआत तब हुई जब वे भारत और इंग्लैंड में पढ़ रहे थे. वहां वे इंडिया हाउस से जुड़े हुए थे. इन्होंने अभिनव भारत सोसाइटी और फ्री इंडिया सोसाइटी के साथ मिलकर स्टूडेंट सोसाइटी की भी स्थापना की. देश को ब्रिटिश शासन से आज़ादी दिलाने के उद्देश्य से उन्होंने द इंडियन वॉर का प्रकाशन किया. उसमें 1857 की स्वतंत्रता की पहली क्रांति के बारे में भी लेख प्रकाशित किए.उसे ब्रिटिश कर्मचारियों ने बैन कर दिया.
नासिक के कलेक्टर की हत्या के मामले में आजीवन कारावास
वहीं साल 1910 में उन्हें नासिक के कलेक्टर की हत्या में संलिप्त होने के आरोप में लंदन में गिरफ़्तार कर लिया गया था. 1910 में नासिक के जिला कलेक्टर जैकसन की हत्या के आरोप में पहले सावरकर के भाई को गिरफ़्तार किया गया था.” “सावरकर पर आरोप था कि उन्होंने लंदन से अपने भाई को एक पिस्टल भेजी थी, जिसका हत्या में इस्तेमाल किया गया था. ‘एसएस मौर्य’ नाम के पानी के जहाज़ से उन्हें भारत लाया जा रहा था. जब वो जहाज़ फ़ाँस के मार्से बंदरगाह पर ‘एंकर’ हुआ तो सावरकर जहाज़ के शौचालय के ‘पोर्ट होल’ से बीच समुद्र में कूद गए.” सुरक्षाकर्मियों ने उन पर गोलियाँ चलाईं, लेकिन वो बच निकले.” लेकिन तट पर पहुंचने के बाद सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. उन्हें 25-25 साल की दो अलग-अलग सजाएं सुनाई गईं और सज़ा काटने के लिए भारत से दूर अंडमान यानी ‘काला पानी’ भेज दिया गया.
अंडमान की सेल्युलर जेल में कालापानी की यातना
उन्हें 698 कमरों की सेल्युलर जेल में 13.5 गुणा 7.5 फ़ीट की कोठरी नंबर 52 में रखा गया.
वहाँ के जेल जीवन का ज़िक्र करते हुए आशुतोष देशमुख, वीर सावरकर की जीवनी में लिखते हैं, “अंडमान में सरकारी अफ़सर बग्घी में चलते थे और राजनीतिक कैदी इन बग्घियों को खींचा करते थे.”
“वहाँ ढंग की सड़कें नहीं होती थीं और इलाक़ा भी पहाड़ी होता था. जब क़ैदी बग्घियों को नहीं खींच पाते थे तो उनको गालियाँ दी जाती थीं और उनकी पिटाई होती थी. परेशान करने वाले कैदियों को कई दिनों तक पनियल सूप दिया जाता था.”
अंडमान से वापस आने के बाद सावरकर ने एक पुस्तक लिखी ‘हिंदुत्व – हू इज़ हिंदू?’ जिसमें उन्होंने पहली बार हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के तौर पर इस्तेमाल किया. दुनिया में शायद ही कोई ऐसा उदाहरण मिले जो क्राँतिकारी कवि भी हो, साहित्यकार भी हो और अच्छा लेखक भी हो.
1921 में प्रतिबंधित समझौते के तहत छोड़ा गया
जेल में रहते हुए जेल से बाहर आने की सावरकर ने कई असफल कोशिश की लेकिन वे बाहर आने में असफल रहे. उनकी इन कोशिशों को देखते हुए उन्हें अंडमान निकोबार की सेलुलर जेल में कैद किया गया. जेल में उन्होंने हिंदुत्व के बारे में लिखा. 1921 में उन्हें प्रतिबंधित समझौते के तहत छोड़ दिया था की वे दोबारा स्वतंत्रता आन्दोलन में सहभागी नही होंगे.
इसके बाद सावरकर ने काफी यात्राएं की और वे एक अच्छे लेखक भी बने. सावरकर ने हिंदू महासभा के अध्यक्ष के पद पर रहते हुए भी सेवा की है. वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उग्र आलोचक बने थे और उन्होंने कांग्रेस द्वारा भारत विभाजन के विषय में लिये गये निर्णय की काफी आलोचना भी की.
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गांधी की हत्या की साजिश के आरोप से दोषमुक्त हुए
जब सावरकर को गांधीजी की हत्या का आरोपी माना गया तो मुंबई के दादर में स्थित उनके घर पर गुस्से में आयी भीड़ ने पत्थर फेंके थे, लेकिन बाद में कोर्ट की कार्यवाही में उनके खिलाफ सबूत नहीं मिलने के कारण उन्हें रिहा कर दिया गया. उनपर ये आरोप भी लगाया गया था की वे “भड़काऊ भाषण” देते हैं लेकिन कुछ समय बाद उन्हें पुनः निर्दोष पाया गया और रिहा कर दिया गया. लेकिन उन्होंने हिंदुत्व के प्रति कभी भी लोगों को जागृत करना नहीं छोड़ा, अंतिम समय तक वे हिंदू धर्म का प्रचार करते रहे.
उनके भाषणों पर बैन लगने के बावजूद उन्होंने राजनीतिक गतिविधियां नही छोड़ीं. .1966 में अपनी मृत्यु तक वे सामाजिक कार्य करते रहे. उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने उन्हें काफी सम्मानित किया और जब वे जीवित थे तब उन्हें पुरस्कार भी दिए गये थे.
उनकी मृत्यु: 26 फ़रवरी 1966, मुम्बई में हुई थी.
उनकी अंतिम यात्रा पर 2000 आरएसएस के सदस्यों ने उन्हें अंतिम विदाई दी थी और उनके सम्मान में “गार्ड ऑफ़ ओनर ” भी दिया था. वर्ष 2000 में वाजपेयी सरकार ने तत्कालीन राष्ट्पति केआर नारायणन के पास सावरकर को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ देने का प्रस्ताव भेजा था, लेकिन उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया था.
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