
Sanjay prasad
बेहद अफसोसजनक बात है कि द कश्मीर फाइल्स को हम एक फिल्म के रूप में स्वीकार नहीं कर रहे. हम इसमें सियासत की विरासत तलाश रहे हैं और यह कहकर कश्मीरी पंडितों के अत्याचार को जायज ठहरा रहे हैं कि उस वक्त केन्द्र में कांग्रेस की सरकार नहीं, किसी और पार्टी की सरकार थी और उसे भाजपा का समर्थन हासिल था. कुछ लोग संख्या के जरिए भी कश्मीरी पंडितों के जुल्म को डायलूट करने की कोशिश कर रहे हैं और यह तर्क दे रहे हैं कि कश्मीर में हिन्दूओं से ज्यादा मुस्लिमों की मौत हुई है.
हर मुद्दे को बायनरी के चश्मे से देखना ठीक नहीं है. सरकार किसी की भी रही हो, अगर कश्मीरी पंडितों को अपने ही देश में शरणार्थी होने का दंश झेलना पड़ा है तो उस पर सवाल तो उठने ही चाहिए? अगर किसी फिल्मकार ने इस विषय पर फिल्म बनाई है तो उसे फिल्म के तौर पर लेना चाहिए? यह उसकी आजादी है कि वह किस विषय पर फिल्म बनाए. आप उससे यह सवाल नहीं कर सकते कि आपने दिल्ली दंगे या गुजरात दंगे पर कोई फिल्म क्यों नहीं बनाई? आलम यह है कि हर कोई फिल्म को अपने-अपने नजरिये की प्रयोगशाला में परखने लगा है? फिल्में वैसे भी लार्जर दैन लाइफ होती है. ऐसे में अगर मान भी लिया जाय कि निर्देशक ने कश्मीरी पंडितों के अत्याचार को अतिरंजित करके दिखाया है तो वह उसका निर्देशकीय अधिकार क्षेत्र और क्रिएटिव फ्रीडम है.
इस बात का ध्यान रखना जरूरी


भागलपुर के आंख फोड़वा कांड पर कई साल पहले प्रकाश झा ने फिल्म गंगाजल बनाई थी. यह फिल्म भी पूरी तरह से सच नहीं थी. निर्देशक ने इसे भी सिनेमाई रंग दिया था ताकि फिल्म चल सके. हां, यह जरूर है कि ऐसे संवेदनशील विषयों को फिल्माने में निर्देशक को इस बात का ध्यान तो रखना ही चाहिए कि इसका सामाजिक ताने-बाने पर बुरा असर नहीं हो.


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