
Faisal Anurag
छात्र और युवा के आंदोलनों ने दुनिया के अनेक देशों में राजनीतिक बदलाव की नई चेतना का संकेत दिया है. फ्रांस, हांगकांग और अर्जेटीना के साथ भारत के युवा आंदालनों के ज्वार में राजनीति की की नई इबारत उभर रही है. हाल के सालों में ट्यूनिशिया ओर मिस्र में युवा के जोरदार आंदालनों के कारण ही उन देशों में बड़े राजनीतिक बदलाव हुए हैं.
यदि इतिहास पर नजर डालें तो 1960 के दशक के उन स्ट्रीट फाइटिंग की तपिश महसूस होती है, जिसने पूरी दुनिया में लोकतंत्र और समानता के मूल्यों को नया तेवर दिया. भारत में भी जयप्रकाश नारायण के नेतृत्ववाले छात्र युवा आंदोलन ने भारतीय राजनीति को बदल दिया. और विमर्श के अनेक नये तेवर प्रदान किये. भारत एक बार फिर उस मुहाने पर खड़ा है. जहां 1970 के दशक की छाया दिख रही है.
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लेकिन इस बार स्वर ज्यादा स्पष्ट और ऊर्जा से भरा हुआ है. 2019 के लोकसभा चुनाव ने जिन राजनीतिक मिथकों को स्थापित किया था वह सात महीनों में ही कमजोर साबित होने लगेगा, इसकी कल्पना तो किसी ने भी नहीं की होगी. लेकिन कैंपसों से बाहर निकले युवाओं ने एक ऐसा डिसकोर्स खड़ा कर दिया है, जिसे नकारना किसी व्यक्ति या राजनीतिक दल के लिए भी संभव नहीं है.
देश के विभिन्न समूहों के भीतर भी आर्थिक हालातों के कारण जिस तरह की निराशा पैदा हुई है, उसकी अभिव्यक्ति राज्यें के चुनाव परिणामों में दखिने लगी है. लोकसभा चुनाव के पहले भी कई राज्यों के चुनावों ने बदलाव के संकेत दिये थे. लेकिन 2019 का लोकसभा चुनाव जिस तरह संकीर्ण राष्ट्रवाद के सांप्रदायिक धुवीकरण का शिकार हुआ, उससे जो अपराजेयता का बोध सृजित हुआ, उसकी दीवार को युवाओं के आंदोलनों ने हिला दिया है.
हालांकि इस तरह का राजनीतिक विश्लेषण जोखिम भरा कार्य है. आरएसएस भाजपा की ताकत को कमतर नहीं आंकते हुए भी यह तो दिख ही रहा है कि जिस तरह नरेंद्र मोदी ओर अमित शाह की अपराजेय छवि बनी थी वह हरिणयाणा-महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों में दरकती नजर आयी है.
इसके साथ अमित शाह के हर हालत में मैनेज कर लेने की क्षमता को भी महाराष्ट्र के घटनाक्रम ने भ्रम साबित कर दिया है. विपक्ष को इससे ऊर्जा मिली है. विपक्ष को अभी यह प्रमाणित करने की जरूरत बनी हुई है कि वह भाजपा का विकल्प बनने के लिए तैयार है.
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सीएए औऱ एनआरसी का विरोध जिस बड़े पैमाने पर हुआ है, उसकी कल्पना तो भाजपा के मैनेजरों और यहां तक कि अमित शाह को भी नहीं रही होगी. मीडिया के एकतरफा इस्तेमाल के बाद भी सरकार के प्रति जो अविश्वास आंदोलनकारियों के बीच पैदा हुआ है, वह खत्म होता नहीं दिखता है.
नरेंद्र मोदी ने जब रामलीला मैदान से देश को यह आश्वासन देने का प्रयास किया कि एनआरसी की चर्चा उनकी सरकार के कार्यकाल में किसी भी स्तर पर नहीं हुई है, तो इससे विवाद और गहरा ही गया. अनेक स्तरों पर उन वीडियो क्लिप और सरकार के दस्तावेज पब्लिक डोमेन में आ गये, जिससे मोदी की बात गलत साबित हो गयी. इस बीच एनपीआर की घोषणा कर सरकार ने विवाद को और पेचीदा बना दिया है.
अमित शाह के बयान के बाद तो एनपीआर और एनआरसी के अंतरसंबंधों के बारे में ढेर सारे प्रमाण पब्लिक डोमेन में पहुंच गये. कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद की सफाई के बाद तो स्थिति और ज्यादा जटिल हो गयी है. सवाल उठ रहा है कि आखिर अलग-अल्रग नेता अलग-अलग बात कर क्या छुपाना चाहते हैं. सुरक्षा बलों के भारी बंदोबस्त के बावजूद देश के लगभग सभी हिस्सों में जिस पैमाने पर प्रदर्शन हो रहे हैं, उससे सरकार की मुश्किलें हर दिन बढती जा रही हैं.
केंद्र सरकार की नीतियों के समर्थन में भाजपा के नेताओं ने मैदान में उतर कर 1974 के दिनों की याद को ताजा कर दिया है. जब उस दौर के आंदोलन के खिलाफ कांग्रेस भी सभा और प्रदर्शन करने लगी थी. इमरजेंसी में तो कांग्रेस की बड़ी सभा से यह बताने का प्रयास किया गया था कि इंदिरा गांधी की नीतियां ओर इमरजेंसी की पहल को भारी जनसमर्थन हासिल है. लेकिन 1977 के चुनाव ने कांग्रेस को पहली बार दिल्ली से बेदखल कर दिया था. और इंदिरा गांधी चुनाव हार गयीं थीं.
विभिन्न राज्यों के चुनावों में वोट के पैटर्न का अध्ययन दिलचस्प और नये सामाजिक समीकरण का संकेत देता है. झारखंड के चुनाव में तो साफ स्पष्ट हुआ है कि वंचित समूहों के बड़े तबकों और युवाओं में भारी निराशा है. झारखंड के युवा वोट पैटर्न की जो अभिव्यक्ति हुई है, उसमें साफ-साफ इस प्रवृति को देखा जा सकता है.
आदिवासी समूहों के बीच भाजपा का जो निषेध है, वह सामान्य परिघटना का हिस्सा तो नहीं है. इसके पहले भी कई राज्यों में, यहां तक कि लोकसभा चुनाव में भी इसके संकेत दिखते हैं. युवा आंदोलनों के विस्तार के साथ सत्ता विरोधी रुझान और बदलाव की प्रवृति के मजबूत होने की संभावना बनी हुई है.
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