
Faisal Anurag
तकलीफ, बेबसी, लाचारगी और मुसीबत से घिरे मजूदरों को लिए जितना कुछ होना चाहिए था, उतना नहीं हो रहा है. यह नहीं होना बताता है कि न केवल व्यवस्था बल्कि समाज और राजनीति की प्राथमिकताएं कितना बदल गयी हैं. इस तथ्य को नहीं नकारा जा सकता कि लॉकडाउन की बंदिशों की वजह से राजनीतिक दलों की सीमा तय हो गयी है.
बावजूद इस अभूतपूर्व स्थिति में उनसे जो अपेक्षा इन तबकों को है, उस पर वे खरे साबित नहीं हो रहे हैं. मध्यवर्ग तो अब दूसरों की तकलीफों के प्रति सरोकार दिखाने के बजाय उसके प्रति नफरत की भाषा का इस्तेमाल करने लगा है. यह एक बड़ी सामाजिक बीमारी का लक्षण जैसा है.


इन हालात के बीच भी जिस तरह कुछ लोगों ने इन मजूदरों के प्रति अपनी संवेदना को जमीन पर उतारा है, वह तमाम निराशा के बीच सुकून देता है.


इस तथ्य को बार-बार कहे जाने की जरूरत है कि यदि कामयाबी का सेहरा केंद्र सरकार लेती है तो नाकामयाबी की जिम्मेदारी से वह मुक्त नहीं हो सकता है.
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लेकिन सरकार की जिम्मेदारी के सवाल को ले कर राजनीतिक दलों के बड़े समूह की प्रतिक्रिया बेहद निराशाजनक है. एक तरफ तो सरकार विपक्ष को ही सारी समस्याओं के लिए जिम्मेदार बताने में पीछे नहीं हटती है.
जैसा कि राहत पैकेज के अंतिम प्रेस कांफ्रेंस में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने जाहिर किया. राहुल गांधी को ड्रामाबाज बताते हुए उन्होंने श्रमिकों के आवागमन को सुगम बनाने की जिम्मेदारी विपक्ष शासित राज्यों पर डालते हुए अपनी सरकार को पाकसाफ बता दिया.
यह कोई सामान्य बात नहीं है. ऐसा पिछले छह सालों से देखा जा रहा है कि तमाम समस्याओं की जिम्मेदारी प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू पर स्वयं नरेंद्र मोदी ही डालते आए हैं. लॉकडाउन के बीच उभरी श्रमिक समस्या दरअसल रणनीतिक गलतियों का ही परिणाम है.
इस सवाल को पूरी ताकत से उठाने में क्षेत्रीय दलों और वामदलों की भूमिका भी नगण्य ही नजर आती है. मौजूदा केंद्र सरकार इसका भी लाभ उठा रहा है.
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मजदूर और किसान वामदलों की राजनीति के बुनियादी आधार समूह हैं. मजदूर राजनीति ही उनकी ताकत है. और यही वह हिरावल है जो उनके सिद्धांत के अनुसार क्रांति का वाहक हैं. लेकिन इस पूरी त्रासदी में तमाम बड़े वाम नेताओं की भूमिका पर सवाल उठाए जाने की जरूरत है. बंदिशों के बावजूद प्राप्त अवसर का बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है.
वाम दल और उनके बड़े नेता इसमें ठीक उसी तरह कारगर साबित नहीं हुए हैं जैसे कि वे क्षेत्रीय दल जो कमजोर समूहों की राजनीति के लिए जाने जाते हैं. और जो सामाजिक इंसाफ की बात करते हैं. कई बड़े नेता तो इस दौरान मामूली उपस्थिति भी नहीं दिखा रहे हैं.
राहुल गांधी ने एक रास्ता जरूर दिखाया है कि सरकार के फैसलों की आलोचना किए बगैर रचनात्मक सुझाव दिए जा सकते हैं. और सरकार पर दबाव डाला जा सकता है. लेकिन मायावती और अखिलेश यादव हों या तेजस्वी यादव, अपनी भूमिका में कारगर नहीं दिखे हैं. तेजस्वी यादव ने जरूर कुछ सक्रियता दिखायी है.
लेकिन अन्य क्षेत्रीय दलों के नेताओं की भूमिका बताती है कि किस तरह इस महामारी के संकट के बीच राजनीति में प्रयोगधर्मिता के अवसर का काई उदाहरण उन्होंने नहीं दिया है.
वामदलों की ताकत एक दशक पहले जैसी नहीं है. लेकिन 2017- 2018 में जिस तरह किसानों और मजदरों के बड़े बड़े मार्च का आयोजन कर सरकार पर दबाव बनाया गया था, उस प्रक्रिया को आगे जारी नहीं रख पाए हैं. केरल की वाममोर्चा की सरकार ने एक बेहतरीन उदाहरण पेश किया है.
जिसकी दुनिया भर में चर्चा हो रही है. लेकिन उस बड़ी कामयाबी को ले कर वामदलों ने देश के किसी भी अन्य हिस्से में बहस तक नहीं खड़ा किया है. उनकी सरकार ने कोविड 19 के बीच जिस प्रबंध कुशलता ओर तत्परता और समझ का परिचय दिया है, इसकी प्रशंसा दुनिया भर की मीडिया कर रही है.
लेकिन भारत के आमलोगों तक इसे पहुंचाने का दायित्व का नहीं निभाया जाना सामान्य हालात का परिचय तो नहीं है. वाम विरोधी ताकतें इसकी चर्चा न करें, यह संभव है. लेकिन नयी प्रयोगधर्मिता से कामयाबी को विमर्श में लाने का दायित्व तो सीपीएम और सीपीआई का है ही.
केवल श्रमिक फ्रंट ही नहीं, बल्कि इकोनोमी व लेबर के सुधारों को लेकर जिस तरह के कदम उठाए गए हैं, वह भी मजदूरों का बड़ा सरोकार हैं. लेकिन इस सवाल पर भी जिस तरह की प्रतिक्रिया दी जानी चाहिए वह पर्याप्त नहीं है. यह दौर केवल खाना पूरी का नहीं है.
दुनिया भर में जब श्रमिकों के सवाल प्राथमिकता के केंद्र में हैं, उस समय भारत में श्रमिक को बेबसी के दौर में धकेला गया है. हालात बताते हैं कि वाम दलों ने या तो हार मान लिया है या वे वक्ति की चुनौतियों का समाना करने का बौद्धिक ताकत नहीं जुटा पा रहे हैं.
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