
Faisal Anurag
भ्रष्टाचार, अहंकार के खिलाफ सरयू राय के संघर्ष ने न केवल रघुवर दास को राजनीतिक जीवन की सबसे भयावह हार का शिकार बना दिया, बल्कि विपक्षी गठबंधन को भी हमलावर चुनाव प्रचार को हवा दे दिया. राज्यों में चुनाव दर चुनाव हार का शिकार हो रही भाजपा के लिए यह हार कई मायनों में अलग और बड़ी है.
चुनाव परिणाम यह भी संकेत दे रहा है कि वोटरों के लिए रोजमर्रा की जिंदगी के सवाल प्रभावी हैं. वोटर अहंकार को सहने के लिए तेयार नहीं हैं. और सांगठनिक ढांचे के ताकतवर होने के तमाम मिथक के खिलाफ खड़ा होने का जज्बा रखता है.
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सरयू राय की बगावत का इस चुनाव में प्रभावी असर था, और इस बगावत के कारण विपक्ष पर लगने वाले तमाम भ्रष्टाचार के आरापों पर सरयू राय के सवाल ज्यादा भारी साबित हुए. सरयू राय भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी छवि एक क्रूसेडर की तरह स्थापित करने में सफल हुए. वोटरों के रूझान को इस छवि ने प्रभावित किया.
सरयू राय ने एक ओर मुख्यमंत्री को जेल भेजने की बात कर चुनावी राह को आसान बना लिया. सरयू राय ने लालू प्रसाद यादव के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप की अगुवाई की थी. और उसे अंजाम तक भी पहुंचाया था. झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के खिलाफ उनका संघर्ष तो काफी चर्चित रहा है. सरयू राय रघुवर दास के कैबिनेट का सदस्य रहते हुए भी सरकार को भ्रष्टाचार के सवाल पर घेरते रहे.
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इस संदर्भ में न केवल भाजपा आलाकमान को पत्र लिखा बल्कि उसे सार्वजनिक भी किया. सरयू राय के अभियान से भाजपा अलाकमान पर सवाल उठे कि उसने आरोपों की जांच करने के बजाय उसे रद्दी में डाल दिया. खास कर मोदी और शाह के नेतृत्व को भी इस तरह के विरोध का सामना किसी और राज्य में नहीं करना पडा.
मोदी और शाह ने इन आरापों के बावजूद जिस तरह रघुवर दास का बचाव किया, उससे सरयू राय के राजनीतिक अभियान को ताकत मिली. भाजपा और सरकार में होते हुए भी सरयू राय उपेक्षा का सामना करते रहे. और ठीक चुनाव के वक्त उन्होंने बगावत की राह पकड़ी.
भाजपा ने जिस परिवारवाद और भ्रष्टाचार के आरापों से विपक्ष को घेरने का प्रयास किया, वह उसी के लिए भारी पड़ा. इससे विपक्ष की साख के बजाय रघुवार दास और भाजपा की साख ही प्रभावित हुई. और जीरो टालरेंस की नीति जुमला साबित हुई.
इमरजेंसी के बाद जब 1977 में चुनावों की घोषणा हुई तो विपक्ष की ताकत को कांग्रेस के दो दिग्गजों के विद्रोह ने मजबूत बना दिया था. ये दो दिग्गज थे, बाबू जगजीवन राम ओर हेमवतीनंदन बहुगुणा. इनकी बगावत ने पूरे हिंदी भाषी इलाके में इमरजेंसी विरोधी भावना को बड़ी ताकत दिया.
और इंदिरा गांधी व उनके पुत्र संजय गांधी तक को हार का सामना करना पड़ा. झारखंड में सात महीने पहले भाजपा ने भारी जीत हासिल की. लेकिन विधानसभा चुनाव में उसे करारी हार का सामना करना पडा. इसमें एक तरफ जहां विपक्षी गठबंधन की चाकचौबंद तैयारी तो थी ही, लेकिन सरयू राय ने उसे अभेद्य बना दिया. हाल के सालों में यह अपवाद ही है कि कोई मुख्यमंत्री अपनी ही सीट न बचा पाये.
भाजपा की यह हार कोई सामान्य हार नहीं है. मोदी है तो मुमकिन है, पर भरोसा करते हुए भाजपा ने जो भी रणनीति बनायी उसे वोटरों ने खारिज कर दिया. खास कर समाज के विभिन्न तबकों ने जिस तरह भाजपा के खिलाफ वोट किया, उससे जाहिर है कि रघुवर दास के दावों के विपरीत सभी तबकों में नारजगी थी.
हालांकि इस हार की पूरी जिम्मेदारी रघुवर दास ने ली है. और केंद्रीय नेतृत्व का बचाव किया है. बावजूद इस तरह की हार की जिम्मेवारी से न तो नरेंद्र मोदी ओर न ही अमित शाह का बचाव किया जा सकता है. लोकसभा चुनाव के बाद जिन-जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं, वहां भाजपा के वोट प्रतिशत औक सीटों में जिस तरह की कमी आयी है, उससे जाहिर होता है कि मोदी सरकार जनांकांक्षाओं को नजरअंदाज कर रही है.
खास कर रोजगार, भ्रष्टाचार, इकोनामी और किसानों के साथ समाज के कमजोर वर्ग के तबकों, जिसमें मुस्लिम भी हैं, के भीतर गहरी निराशा बढ़ी है. झारखंड के आदिवासियों ने जिस तरह भाजपा को खारिज किया है यह गंभीर संदेश है. लोकसभा चुनाव के पहले हुए तीन विधानसभा चुनावों में भी जिस तरह आदिवासियों का मोहभंग दिखा था, उसकी झलक तो लोकसभा चुनाव में भी मिली थी.
लेकिन महाराष्ट्र और झारखंड के आदिवासियों का आक्रोश विधानसभा चुनावों में खुल कर दिखा.
चुनाव परिणाम केवल राजनीतिक समीकरण का ही संकेत नहीं देते हैं, बल्कि सामाजिक अंतरविरोधों की भी उस में बड़ी भूमिका होती है. झारखंड में इस की अभिव्यंजना तो पहले भी होती रही है, लेकिन विधानसभा चुनाव में वह निर्णायक साबित हुआ है. अंतर यही है.
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