
एलान-ए-हक़ में ख़तर-ए-दार-ओ-रसन तो है
लेकिन सवाल ये है कि दार-ओ-रसन के बाद?
याद कीजिये तरक़्की़पसंद अदबी तहरीक का सफर. सिर्फ हिन्दुस्तान नहीं बल्कि सारी दुनिया में आजा़दी और अमन तहरीक अपने शबाब पर थी. हमारे देश में जो अदीब और शायर तहरीक की अगुवाई कर रहे थे उनमें ज़्यादातर नौजवान थे. नये शायर और अदीबों ने सज्जाद ज़हीर व मुल्कराज आनन्द के साथ प्रेमचंद, मौलाना हसरत मोहानी और जोश मलीहाबादी जैसे बुजु़र्ग अदीबों ने पुरे माहौल में जो नई जान फूंकी थी, उससे पूरा देश आंदोलित हो गया था. उस समय के रिकार्ड बताते हैं कि ऐसा लग रहा था कि जैसे इंकि़लाब बस दरवाजे पर दस्तक दे रहा है. मजरूह जैसा नौजवान शायर कह रहा था:
उस तरफ़ रूस, इधर चीन, मलाया, बर्मा
अब उजाले मेरी दीवार तक आ पहुंचे हैं
उस वक़्त के मुशायरे या कवि गोष्ठियां आज जैसी नहीं थीं. ये पैसे कमाने के लिए नहीं थीं, बल्कि इनमें आजा़दी का जज़्बा था और आंदोलन के लिए कमिटमेन्ट था. और सब कुछ एक मिशन के तहत हो रहा था.
नये शायरों में फ़ैज़, फि़राक़, अली सरदार जाफ़री, मजरूह, साहिर, जांनिसार अख्तर और कैफी़ आज़मी जैसे लोग नौजवानों और छात्रों में एक ऐसा जोश भर रहे थे कि उनमें कुर्बानी का जज़्बा था. ऐसे माहौल में ये शायर पूरे देश में घूम घूम कर अवाम को आन्दोलित करने का काम कर रहे थे. और नतीजे के तौर पर हर तरफ़ एक नये सपने की आमद दस्तक दे रही थी. इनमें दूसरे नौजवान शायरों की तरह कैफी़ की मक़बूलियत दिन रात बढ़ रही थी. और वो नौजवान दिलों की धड़कन बन गये थे. तरक्क़ी पसन्द शायर अपनी शायरी में औरतों को इस आंदोलन में बराबर शरीक बना कर साथ चलने की दावत दे रहे थे. और इसका असर भी नज़र आ रहा था.
मख़्दूम के शहर हैदराबाद में एक मुशाएरा था. इसमें कैफी ने एक नज़्म सुनाई. जिसका उन्वान था “औरत”. इसमें कैफी़ ने एक लाइन जो बार बार दोहराई थी वो थी:
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे
इस नज़्म ने एक नौजवान लड़की पर ऐसा असर डाला कि उसने उसी वक़्त साथ चलने का फै़सला कर लिया. और कैफी़ की हम सफ़र बन कर सारी जि़न्दगी साथ रहने का अहद करके आंदोलन का ऐसा हिस्सा बनी कि वो आंदोलन की पहचान बन गयी. और इस नौजवान लड़की का नाम था शौकत जो इसके बाद शौकत आजमी के नाम से जानी गयीं.
1943 में इप्टा का गठन हुआ. और शौकत आजमी ने इस आंदोलन को इसकी ऊंचाइयों तक पहुंचाने का काम किया. इस सफ़र में कई ऐसे मका़म आये जब इप्टा के कलाकारो पर पुलिस ने गोलियां चलायीं. जिसमें शौकत कभी बाल-बाल बचीं तो कभी पुलिस की लाठियों से घायल हुईं. लेकिन कभी पीछे नहीं हटीं.
जहां तक इप्टा का सम्बन्ध है, यह कहना मुश्किल है कि इस आंदोलन में कैफी़ का योगदान ज़्यादा है या शौकत आपा का. सिर्फ इप्टा नहीं बल्कि जब भी भारत के सांस्कृतिक आंदोलन का इतिहास लिखा जायगा, शौकत आपा का नाम उन हस्तियों में आयेगा जिन्होंने आंदोलन को एक दिशा प्रदान की. शौकत आपा का जाना बहुत ही दुःखद है. उनके कारनामे आने वाली नस्लों के मार्ग दर्शन का काम करेंगे.
अलविदा शौकत आपा!
(22 नवंबर, 2019 को मुंबई में शौकत आजमी का निधन हुआ है)