
Faisal Anurag
बिहार की चुनावी रणनीति में विरोधी दलों से बड़े पैमाने पर दल बदल कराने की तैयारी का ही पहला नमूना है राजद के पांच विधान परिषद सदस्यों का दलबदल. यह दलबदल भी पहले के दलबदल की तरह कई तरह के सवाल खड़ा कर रहा है. बिहार में जमीनी तौर पर नीतीश कुमार के कमजोर होने की चर्चा के बीच राजद के नेताओं को जदयू में शामिल कराने का यह मामला कोई वैचारिक दलबदल का संकेत नहीं है. देश की राजनीति में दलबदल के पीछे की कहानी कम ही लोगों तक पहुंचती है. राजनीतिक गलियारों में चर्चा कम रहती है. कोविड 19 के संकट के बीच बिहार के चुनाव की आहट के साथ दलबदल का सुनियोजित प्रयास बता रहा है कि आने वाले दिनों में कई और ऐसे मामले सामने आ सकते हैं.
लालू प्रसाद की अनुपस्थिति में राजद भाजपा और जदयू के निशाने पर है और उसके नेताओं पर लंबे समय से डोरे डाले जा रहे हैं. बिहार के जमीनी यर्थाथ की यह हकीकत है. जिसके कारण नेताओं को दलबदल के लिए तैयार होने में समय लगता है. बावजूद कुछ नेता न केवल निजी खुन्नस बल्कि अन्य आकर्षणों के कारण कमजोर साबित होते हैं.


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अशोक चौधरी बिहार प्रदेश कांगेस के अध्यक्ष थे. नीतीश कुमार के पाला बदल के समय उनकी खूब चर्चा हुई. नीतीश सरकार में वे मंत्री भी थे. और नीतीश कुमार तब तेजस्वी यादव और अशोक चौघरी को बिहार के भविष्य का नेता बताते थकते नहीं थे. लेकिन नीतीश दुबारा भाजपा प्रेम में आ गए और चौधरी कुछ समय बाद कांग्रेस छोड़ उनके साथ हो लिए. दो साल पहले जब वे कांग्रेस छोड़ जदयू में गए तब कहा गया कि बिहार कांग्रेस विधायक दल में बड़े पैमाने पर टूट होगी. लेकिन अशोक चौधरी अब तक तो टूट कराने में कामयाब नहीं हुए हैं. लेकिन राजद के पांच विधान परिषद सदस्यों को जदयू पाले में ले जाने में बड़ी भूमिका निभाने में कामयाब हो गए.
इस दलबदल के बीच ही राजद के वरिष्ठतम नेता रघुवंश प्रसाद सिंह के पार्टी पद से इस्तीफा के बाद जदयू खेमे में उत्साह है. कोविड 19 ग्रस्त रघुवंश सिंह ने बयान दिया कि वे पार्टी से नाराज हैं. लेकिन पार्टी से इस्तीफा देने नहीं जा रहे हैं. रघुवंश प्रसाद सिंह जो लालू प्रसाद के करीबी हैं, की नारजगी का कारण रामा सिंह हैं जिन्हें राजद में शामिल होने की संभावना है. चर्चा है कि 29 जून को वे राजद की सदस्यता ले लेंगे. वैशाली की राजनीति में रामा सिंह का महत्व है. और रघुवंश प्रसाद सिंह नहीं चाहते हैं कि उन्हें राजद में लिया जाए. रघुवंश प्रसाद सिंह की नाराजगी का एक और कारण जगतानंद सिंह को प्रदेश अध्याक्ष बनाए जोने के बाद से है. तेजस्वी यादव रघुवंश बाबू की नाराजगी को ले कर गंभीर हैं. और उनके महत्व को बता रहे हैं.
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लेकिन जदयू भाजपा गठबंधन केवल लोजपा के साथ से ही संतुष्ट नहीं है. उसकी नजर जीतन रात मांझी और मुकेश साहनी पर भी है. जो राजद के साथ गठबंधन में हैं. जीतन राम मांझी की नाराजगी कई बार सामने आ चुकी है. माना जा रहा है कि वे देर-सबेर जदयू के साथ जाएंगे. लेकिन मुकेश साहनी को ले कर भाजपा जदयू आश्वस्त नहीं है. बिहार इस समय कई तरह के संकट से गुजर रहा है. खास कर जदयू भाजपा सरकार को माइग्रेंट लेबर के आक्रोश का अंदेशा है. हालांकि बिहार में प्रधानमंत्री ने रोजगार के लिए विशेष योजना की शुरूआत कर दी है. लेकिन बिहार की जमीनी स्थिति में इसकी भूमिका वोट दिलाने में कितनी कारगर होगी कहा नहीं जा सकता.
बिहार के चुनाव में सामाजिक शक्तियों का गठबंधन अब तक बड़ी भूमिका निभाता रहा है. लोकसभा चुनाव में भी भाजपा ने इस सामाजिक समीकरण को साध कर ही जीत हासिल की. 2019 के चुनाव में तो उसने नए सामाजिक आधारों का भी समर्थन हासिल किया. लेकिन विधानसभा चुनाव के नजरिए से बिहार का परिदृश्य भाजपा जदयू को सहज नहीं लग रहा है. इसका एक बड़ा कारण लॉकडाउन के पहले के वे जनांदोलन हैं जिन्होंने ने बिहार में एक नए किस्म का राजनीतिक माहौल बनाया है.
लोकसभा चुनाव में भाजपा जदयू के साथ चले गए कई सामाजिक समूहों में मोहभंग की स्थिति है. भाजपा भी बिहार में नए वायदे करने की स्थिति में नहीं है. क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने 2015 में जिस 1 लाख 25 करोड़ के विशेष पैकेज की घोषणा की थी, उसे अमल में नहीं लाया गया. पिछले पांच सालों में बिहार में राजद और वाम मोर्चे की नजदीकियां बढी हैं. बिहार में वोट समीकरण के नजरिए से वाम दलों की भूमिका को कोई भी नजरअंदाज नहीं कर सकता है.
नवंबर दिसंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों में दलबदल जदयू भाजपा को लाभ देंगे या नहीं, इस पर कुछ कहना जल्दबाजी होगी. लेकिन मनोवैज्ञानिक मजबूती के दावे के उनके इरादे इससे जरूर पुष्ट हो सकते हैं. लेकिन यह इस बात पर निर्भर है कि दलबदल करने वाले नेता सामाजिक शक्तियों में कितने प्रभावी साबित होंगे. जानकार तो बता रहे हैं कि विधान पार्षदों का जो लॉट अभी जदयू में गया है उनका प्रभाव बहुत ही सीमित है. बिहार सामाजिक समूहों के तीक्ष्ण धुवीकरण का राज्य है. कुछेक अपवादों को छोड़ कर देखा गया है कि पिछले चार दशकों से बिहार विधान सभा के चुनावों में इन शक्तियों के ध्रुवीकारण को दरकाने में बड़ी पार्टियों को कामयाबी नहीं मिली है.
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