
Dilip Kumar
Palamu : आजादी के बाद पिछले 70 सालों में समय के साथ-साथ आम चुनाव में भी काफी बदलाव आया है. अब हाईटेक चुनाव और प्रचार-प्रसार पर करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं. चुनाव में अब पैसे का ही दम दिखने लगा है. हालांकि कुछ दशक पहले तक ऐसी बात नहीं थी. जनप्रतिनधि धनबल से नहीं बल्कि जमीनी पकड़ से चुनाव जीता करते थे. ऐसे नेता हजार से भी कम रुपये में चुनाव लड़कर फतह हासिल कर लेते थे. आज हम ऐसे ही कुछ जनप्रतिनिधियों का जिक्र कर रहे हैं, जिन्होंने मामूली रकम खर्च कर चुनाव में जीत हासिल की थी.
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जनता के पैसे से जीतते रहे चुनाव
जब हम धनबल और बाहुबल से इधर बात करते हैं तो अनायास 1967 से 1977 तक चार बार लगातार डालटनगंज विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहे पूरनचंद का चेहरा याद आ जाता है. अब राजनीति को ‘काजल की कोठरी’ के रूप में माना जाने लगा है, लेकिन जब पूरनचंद के जीवन क्रम को हम देखते हैं तो ‘काजल की कोठरी’ में रहने वाले इस शख्स के चेहरे पर की कोई धब्बा दिखायी नहीं देता. सदा जीवन और उच्चविचार के सिद्धांत पर चलने वाला यह छोटे कद का पतले-दुबले इस आदमी ने कभी चुनाव प्रचार पर पानी की तरह रुपये नहीं बहाये. वे चुनाव जीतते थे तो जनता के पैसे से, वह भी चंदा के रूप में किसी से मोटी रकम नहीं लेते थे. उनके सहयोगी आम लोगों से रुपया, दो रुपया मांगकर चुनाव का खर्च चलाते थे. उनकी राजनीतिक चरित्र सदेव भावी पीढ़ी को प्रेरित करता रहेगा.
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पांच सौ रुपये खर्च कर लड़ा पहला चुनाव
चुनावी खर्च पर बात हो रही हो और हम पलामू के पूर्व सांसद जोरावर राम की चर्चा न करें तो यह बेमानी होगी. श्री राम अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि जब वह 1967 में अपना पहला चुनाव लड़ रहे थे तो चुनाव प्रचार पर केवल पांच सौ रुपये खर्च हुए थे.
उस समय पार्टी की ओर से चुनाव खर्च नहीं दिया जाता था, इसलिए ये पांच सौ रुपये भी उन्होंने अपने दोस्तों से उधार लिया. उस वक्त चुनाव प्रचार के लिए लोग पैदल ही निकलते थे. बहुत जरूरी होता था तो प्रत्याशी रिक्शा और साईकिल का इस्तेमाल करते थे. आज के समय में जिस प्रकार चुनाव प्रचार का तरीका हाईटेक हो गया है, उसे भी श्री राम गिरती राजनीति का एक पहलू मानते हैं. वे कहते हैं कि अब लोग राजनीति को धनवर्षा का साधन मानते हैं. इसी कारण लोग येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतना चाहते हैं और जायज-नाजायज हथकंडे अपनाते हैं.
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पहले चुनाव पर खर्च हुए 7,500
अब बात पलामू की राजनीति के भीष्म पीतामह कहलाने वाले झारखंड विधानसभा के प्रथम अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी की. बिहार-झारखंड की राजनीति में कभी जबरदस्त पैठ रखने वाले पूर्व सांसद इन्दर सिंह नामधारी ने भी कभी चुनाव जीतने के लिए पैसों को विशेष महत्व नहीं दिया. वे बताते हैं कि 1967 में जब वे पूरनचंद के खिलाफ अपना पहला चुनान लड़ रहे थे तो उनके केवल 7,500 रुपये खर्च हुए थे, वह भी 15-20 दिनों के अभियान में. वे कहते हैं कि पहले प्रचार के लिए एक जीप मिलती थी. डीजल भी सस्ता था. दिनभर घूमते थे तो भी 100 रुपये खर्च नहीं हो पाते थे.
श्री नामधारी राजनीति के वर्तमान ढांचे से चिंतित हैं. उनका कहना है कि अब तो राष्ट्रीय पर्टियां भी टिकट देने से पहले पूछती हैं-आप किस जाति के हैं, कितने वोट हैं उनकी जाति के, पैसे कितने खर्च करेंगे. वे मानते हैं कि राजनीति में काफी विकृतियां आयी हैं. अब लोग चुनाव जीतने के लिए धन ही खर्च नहीं करते, बल्कि असमाजिक तत्वों का भी इस्तेमाल करते हैं. महात्मा गांधी कहते थे कि ‘जब तक साधन पवित्र नहीं होगा, साध्य तो पवित्र हो ही नहीं सकता.’ श्री नामधारी कहते हैं कि सबसे पहले चुनावी साधन को पवित्र करने की जरूरत है.
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