
Vishnu Bhogta
1857 के विद्रोह की दहक से झारखंड का पलामू जिला भी अछूता नहीं रहा. अंतिम चेरो राजा चूड़ामणि राय के गद्दी से हटाये जाने के बाद चेरो प्रायः नेतृत्व विहीन हो गये थे. इस क्रांति में उनसे भी बढ़कर खरवारों और विशेषतः खरवारों की एक शाखा भोगताओं ने लिया.
भोगता जाति को स्वतंत्रता जान से भी प्यारी रही है. ये अत्यन्त साहसी और वीर होते हैं. क्रांति से ठीक पूर्व चेमो सनेया गढ़ के प्रधान चेमू सिंह भोगता को अंग्रेजों ने निर्वासित जीवन व्यतीत करने के लिए विवश कर रखा था.
निर्वासन में मृत्यु के बाद उनके दो पुत्रों नीलाम्बर और पीताम्बर भोगता को अंग्रेजों से बदला लेना बाकी था. डोरंडा के सिपाहियों के विद्रोह के समय भोगता-बंधुओं में छोटा पीताम्बर, रांची में ही था. वह शीघ्रतापूर्वक अपने अग्रज नीलाम्बर से मिलने पलामू चला गया.
दोनों ने मिलकर क्रांति का शंखनाद किया और अपने को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया. दोनों भाइयों के नेतृत्व में भोगताओं और समस्त खरवार समुदाय को मिलाकर एक विशाल शक्तिशाली संगठन बनाया गया.
नीलाम्बर-पीताम्बर गुरिल्ला युद्ध में बड़े निपुण थे. 21 अक्टूबर 1857 को उन्होंने 500 भोगताओं के साथ शाहपुर पर हमला किया. वहां से रानी (राजा चूड़ामन राय की विधवा पत्नी) से चार बंदूकें हाथ लगीं.
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विद्रोहियों ने शाहपुर थाना पर भी आक्रमण किया और सभी कागजात जला डाले तथा एक बरकंदाज को मार डाला. थाना के दारोगा ने भागकर बंगाल कोल कम्पनी के राजहरा गोदाम में आश्रम लिया.
दूसरे दिन नीलाम्बर-पीताम्बर के 500 लोग डालटनगंज से पूर्व स्थित लेस्लीगंज की ओर बढ़े. इन्हें देखते ही पुलिस और आर्टीलरी ने भागकर नवागढ़ के जागीरदार शिवचरण राय के यहां शरण ली.
विद्रोहियों ने लेस्लीगंज में थाना, आबकारी तथा तहसीलदार भाग खेड़े हुए. कुछ लोगों की हत्या भी कर दी गयी. और पांच निकटवर्ती गांवों को लूट लिया गया. देखते ही देखते पलामू का विद्रोह भयंकर हो गया.
कमिश्नर डाल्टन ने विद्रोह को नियंत्रित करने के लिए सरकार से शेखावती बटालियन की मांग की, लेकिन यह बटालियन उस समय मानभूम में व्यस्त थी. 07 नवम्बर 1857 को ले॰ ग्राहम चैनपुर पहुंचा. भोगता विद्रोही जो सरगुजा की सीमा की ओर चले गये थे, शीघ्र ही चैनपुर लौट आये. ग्राहम की स्थिति काफी कमजोर पड़ गयी.
विद्रोहियों ने उसे चैनपुर गढ़ में घेर लिया और बेबस ग्राहम को रघुवर दयाल सिंह के निवास में छिपकर 24 नवम्बर तक सरकारी सहायता की प्रतीक्षा करनी पड़ी. इधर शाहाबाद के विद्रोही पलामू में हुए विद्रोह को सुनकर उनकी मदद के लिए आने लगे थे.
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समर्थन पाकर उत्साहित भोगता विद्रोहियों ने पीताम्बर के नेतृत्व में रंकागढ़ पर हमला कर दिया. ठाकुराई किशुनदयाल सिंह का महल जला दिया गया. इस घटना से गर्वनर जनरल काफी चितिंत हो उठा और दो तोप, दो कम्पनी सिपाही की मांग की. मेजर काॅटर को अकबरपुर भेजा गया.
उधर 27 नवम्बर को प्रायः 5000 लोगों ने बंगाल कोल कम्पनी के राजहरा कोयला-खानों पर आक्रमण कर दिया. इस आक्रमण में भोगता खरवारों के अतिरिक्त खान के निकट के गांवों के हजारों ब्राह्मण भी शामिल थे. बाद में लगभग 500 ब्राह्मणों को गिरफ्तार किया गया, जिन्हें राजहरा में ही एक वटवृक्ष पर फांसी दे दी गयी थी.
सासाराम स्थित 13 वीं लाईट इन्फैंट्री की दो कम्पनियों को मेजर कॉर्टर के नेतृत्व में ले॰ ग्राहम के सहायतार्थ पलामू भेजा गया. ग्राहम घूम-घूम कर विद्रोहियों को पकड़ रहा था. लेकिन भोगता सरदार नीलाम्बर और पीताम्बर अभी भी ग्राहम की पहुँच से बाहर थे.
16 जनवरी 1858 के दिन कमिश्नर डाल्टन, मेजर मेकडोनल परगनैत जगतपाल सिंह 140 सैनिकों के साथ पलामू के लिए रवाना हुए. 21 जनवरी को वे मणिका पहुँचे. वहीं इनसे ग्राहम अपनी सेना के साथ मिला.
यहां इन्हें खबर मिली कि विद्रोही कि विद्रोही पलामू किले मंि जुटने वाले हैं. इनलोगों ने पलामू किले को तीन ओर से घेर लिया किन्तु दो चार लोगों को पकड़ने से ज्यादा कुछ लाभ नहीं हुआ.
13 फरवरी 1858 ई॰ को ही डाल्टन कोयल नदी के किनारे चेमो पहुँचा. जहां नीलाम्बर-पीताम्बर बंधुओं का गढ़ था. इनका दूसरा गढ़ सनैया था, जहां अग्रेजों ने कब्जा कर लिया था. 23 फरवरी 1858 तक नीलाम्बर-पीताम्बर को पकड़ने में डाल्टन तथा सेना असफल रही.
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चारों ओर जंगलों में नीलाम्बर-पीताम्बर को पकड़ने के लिए सेना भेज दी गयी. अनेक प्रभावशाली व्यक्ति पकड़े गये, किन्तु प्रलोभन और दबाव के बावजूद किसी ने भी अपने सर्वोच्च नेताओं के गुप्त स्थल की जानकारी नहीं थी
डाल्टन हर कीमत पर नीलाम्बर-पीताम्बर को पकड़ना चाहता था और उसने पकड़वाने वाले को जागीर और अन्य पुरस्कार देने की घोषणा भी कर दी थी. भोगताओं को पता पूछने के लिए निर्दयतापूर्वक मारा-पीटा जा रहा था.
अंततः एक बार ये दोनों भाई अपने परिवारवालों के साथ किसी गुप्त स्थान पर भोजन कर रहे थे तो अपने गुप्तचरों की सूचना पाकर डाल्टन उन्हें पकड़ने के लिए दौड़ पड़ा. डाल्टन ने उक्त गुप्त स्थान को घेर लिया.
दोनों भाई तलवार लेकर सेना से भिड़ गये, किन्तु वे दोनों भाई पकड़ लिये गये. उनपर संक्षिप्त मुकदमा चलाकर एक आम के वृक्ष से लटकाकर उन्हें सार्वजनिक रूप से लेस्लीगंज में 28 मार्च 1859 को फाँसी दे दी गयी. दोनों सपूत शहीद हो गये. आज भी उस फांसी स्थल तथा गुफा की पूजा की जाती है.
कहा जाता है कि पीताम्बर की फांसी की रस्सी टूट गयी थी, फिर भी नियम विरुद्ध उसे दोबारा फांसी पर लटकाया गया. नीलाम्बर-पीताम्बर के साथ शिवचरण मांझी, रूदन मांझी तथा भानुप्रताप सिंह जैसे 150 अन्य देशभक्तों को भी मौत की सजा दी गयी थी.
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