
Saryu Roy
Ranchi: पहली किस्त में आपने पढ़ा कि कैसे रघुवर दास ने मेनहर्ट मामले में लगातार एक के बाद चार गलतियां कीं. इस किस्त में आपको पढ़ने को मिलेगा कि कैसे नगर विकास मंत्री रहते हुए रघुवर दास लगातार झूठ बोलते रहे और गवाहों पर दवाब डाला.
… जांच समिति की शर्त पूरा करने के लिए मनगढ़ंत तकनीकी बिन्दुओं की जांच की खानापूरी की गयी. इसके लिए नगर विकास विभाग की अधीनस्थ इकाई आरआरडीए के मुख्य अभियंता की अध्यक्षता में तकनीकी समिति बना कर नगर विकास विभाग ने जांच के नाम पर लीपापोती कर दी. यह पहले हुई एक छोटी गलती पर परदा डालने के लिए पांचवीं बड़ी गलती थी. इसके बाद यह मामला विधानसभा की कार्यान्वयन समिति के सामने आया. समिति गहराई में जाकर विधानसभा की विशेष जांच समिति के प्रतिवेदन की छानबीन करने लगी. तब जांच नहीं होने देने के लिए स्वयं नगर विकास मंत्री ने विधानसभा अध्यक्ष को दो बार पत्र लिख कर दबाव बनाया. समिति के काम में अड़ंगा डाला. निविदा का मूल्यांकन करनेवाले अभियंताओं और अधिकारियों को समिति के सामने गवाही देने से रोका. जब तक उनकी सरकार रही, तब तक कार्यान्वयन समिति की जांच रोक दी गयी. यह छठवीं गलती थी.
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इस बीच सरकार बदल गयी, सरकार बदली तो जांच आगे बढ़ी. निविदा का मूल्यांकन करनेवाली तकनीकी उपसमिति और उच्चस्तरीय समिति के अभियंताओं और अधिकारियों की कार्यान्वयन समिति के समक्ष पेशी हुई, उनसे पूछताछ की गयी. पूछताछ में असलियत सामने आ गयी. समिति ने निष्कर्ष निकाला कि निविदा की योग्यता शर्तों के मुताबिक मेनहर्ट अयोग्य था. उसकी बहाली अनियमित थी. यह निष्कर्ष सरकार के पास भेजा गया. सरकार का उत्तर नहीं मिला तो कार्यान्वयन समिति ने अपना प्रतिवेदन विधानसभा अध्यक्ष को सौंप दिया. परन्तु किसी भी दोषी किरदार पर कार्रवाई नहीं होने दी गयी. नगर विकास विभाग द्वारा चोरी और सीनाजोरी का रवैया अपनाया गया. यह सातवीं गलती थी. इस समिति की अनुशंसा को दबा दिया गया. दोषियों पर कारवाई नहीं होने दी गयी. सच्चाई का गला घोंट दिया गया. यह आठवीं गलती थी.
बाद में सरकार ने कार्यान्वयन समिति के प्रतिवेदन के निष्कर्षों की सत्यता जांचने के लिए पांच अभियंता प्रमुखों की तकनीकी समिति गठित की. इस समिति के चार सदस्यों ने माना कि निविदा की शर्तों पर मेनहर्ट की नियुक्ति में भूल हुई है. एक ने तो यहां तक कह दिया कि निविदा प्रकाशन से लेकर निविदा निष्पादन की प्रक्रिया में हर जगह त्रुटि हुई है. इसके बाद एक सामाजिक कार्यकर्ता ने झारखंड उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की. माननीय न्यायालय का आदेश हुआ कि ‘‘याचिकाकर्ता निगरानी आयुक्त के पास जाये. उनकी शिकायत में दम होगा तो निगरानी आयुक्त विधिसमम्त कार्रवाई करेंगे.’’ निगरानी ब्यूरो के आइजी ने एक साल में पांच पत्र निगरानी आयुक्त को लिखा कि मामले की जांच के लिए अनुमति दी जाये, पर निगरानी आयुक्त से उन्हें जांच की अनुमति नहीं मिली. निगरानी ब्यूरो को जांच नहीं करने दी गयी. यह नौंवी गलती थी.
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इस बीच राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया. राज्यपाल के सलाहकार ने मामले की जांच का आदेश दिया. फिर भी निगरानी ब्यूरो को तो जांच करने की अनुमति नहीं मिली. इसकी जगह निगरानी विभाग के ही तकनीकी परीक्षण कोषांग को जांच करने के लिए कहा गया. इसकी जांच विस्तार से की. जांच में कार्यान्वयन समिति का निष्कर्ष सही साबित हुआ. इसने निविदा के मूल्यांकन में हुए पक्षपात और गलतियों को उजागर कर दिया. राष्ट्रपति शासन हटते ही कारवाई ठप हो गयी. थोड़े ही दिन बाद दोबारा राष्ट्रपति शासन लगा तो तकनीकी परीक्षण कोषांग ने अपना जांच प्रतिवेदन जमा कर दिया. राष्ट्रपति शासन हट जाने के बाद तकनीकी परीक्षण कोषांग के निष्कर्षों को दबा दिया गया. निगरानी आयुक्त ने कोई मंतव्य दिये बिना ही संचिका नगर विकास विभाग को भेज दी. सरकार ने निर्णय किया कि इस मामले में हर स्तर पर कहा गया कि अब कार्रवाई निगरानी विभाग नहीं बल्कि नगर विकास विभाग ही करेगा. यानी ‘मांस की पोटली की हिफाजत गिद्ध के जिम्मे’ कर दी गयी. अब तक हुई अनेक गलतियों के बाद की यह सबसे बड़ी और दसवीं गलती थी.
इस गलती के बाद यह मामला दबा तो दबा रह गया. इतनी गलतियों ने इस मामले को घोटाला बना दिया. पर गलतियों का सिलसिला रुका नहीं. न मेनहर्ट पर कारवाई हुई और न इसे गलत तरीका से बहाल करनेवालों को दंडित किया गया. अब तक ऐसे कई अवसर आये जब सरकार के सामने, नगर विकास मंत्री के सामने मेनहर्ट परामर्शी की नियुक्ति में अनियमितता बरती जाने की बातें सप्रमाण रखी गयीं. निविदा के जटिल तकनीकी मूल्यांकन और वित्तीय मूल्यांकन में पक्षपात साबित हो गया. निविदादाता की योग्यता मूल्यांकन के बारे में नगर विकास मंत्री, महाधिवक्ता लगातार झूठ बोलते रहे, वही झूठ न्यायपालिका के सामने भी और मुख्यमंत्री के सामने भी जान-बूझकर परोसा जाता रहा. यह झूठ था कि निविदा केवल दो लिफाफों में आमंत्रित की गयी थी. जबकि निविदा प्रपत्र में स्पष्ट अंकित था कि निविदा तीन लिफाफों में आमंत्रित की गयी है. पहला लिफाफा योग्यता का, दूसरा लिफाफा तकनीकी क्षमता का और तीसरा लिफाफा वित्तीय प्रस्ताव का. मेनहर्ट निविदा में अंकित योग्यता की शर्तों पर अयोग्य था. योग्यता की शर्तों के अनुसार निविदादाता फर्मों से गत तीन वर्षों, 2004-05, 2003-04 और 2002-03, का टर्न ओवर मांगा गया था. मेनहर्ट ने केवल दो वर्षों- 2002-03, और 2003-04 का ही टर्न ओवर दिया था. 2004-05 का टर्न ओवर उसने दिया ही नहीं था. इस कारण उसकी निविदा मूल्यांकन के पहले चरण में ही, यानी योग्यता के मूल्यांकन के समय ही खारिज हो जानी चाहिए थी. इसका तकनीकी लिफाफा नहीं खुलना चाहिए था. पर अयोग्य होने के बाद भी उसे योग्य करार दिया गया. इसे छुपाने के लिए हर जगह मंत्री और अधिकारी यही कहते रहे कि निविदा केवल दो लिफाफों में ही मांगी गयी थी. एक तकनीकी क्षमता का लिफाफा और दूसरा वित्तीय लागत का लिफाफा. योग्यता के लिफाफा का अस्तित्व ही नकार दिया गया. यह झूठ तत्कालीन नगर विकास मंत्री श्री रघुवर दास ने 9 मार्च 2006 को सबसे पहले सदन के पटल पर बोला. इसके बाद जांच समितियों के सामने भी सरकार की ओर से बार-बार यही झूठ परोसा गया. इसी झूठ की बुनियाद पर मेनहर्ट को परामर्शी नियुक्त कर लिया गया. 09 मार्च, 2005 को इस मुद्दे पर विधान सभा में बहस के दौरान नगर विकास मंत्री श्री रघुवर दास ने सभा पटल पर अपने भाषण में कहा कि ‘‘निविदा दो लिफाफों में आमंत्रित की गयी थी.’’ विशेष जांच समिति के सामने रखे गये कागजात, उच्चस्तरीय तकनीकी समिति के समक्ष रखे गये दस्तावेज, कार्यान्वयन समिति को दिये गये विवरण, महाधिवक्ता को दिये गये कागजात, सभी में सरकार की ओर से यही अंकित किया गया कि निविदा दो मुहरबंद लिफाफों में आमंत्रित की गयी थी. एक लिफाफा तकनीकी क्षमता का और दूसरा लिफाफा वित्तीय लागत का था. योग्यता के लिफाफा के अस्तित्व को दरकिनार कर दिया गया, क्योंकि निविदा शर्त के मुताबिक जो निविदादाता योग्यता की किसी भी एक शर्त पर खरा नहीं उतरेगा या अपूर्ण रहेगा तो उसका आगे का मूल्यांकन नहीं होगा, उसका तकनीकी और वित्तीय लिफाफा नहीं खुलेगा. वह प्रतिस्पर्द्धा से बाहर हो जायेगा. इस कारण यह आश्चर्य नहीं कि जो लोग ‘सांच को आंच क्या’ का दंभ भरते थे, वे जांच के नतीजों की आग पर निहित स्वार्थ का पानी डाल कर ‘जांच की आंच’ को बुझा देने की साजिश में जुट गये.
जब उच्च न्यायालय ने मेनहर्ट द्वारा दायर किये गये मुकदमा में भुगतान का निर्देश दे दिया तो इसे इनलोगों ने अपनी जीत मानी. विधि विभाग और महाधिवक्ता का यह परामर्श उन्होंने नहीं माना कि इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय की डबल बेंच के सामने अपील करनी चाहिए. इन्होंने मंत्रिपरिषद से निर्णय करा लिया कि सरकार इस मामले में अपील नहीं करेगी. स्पष्ट है कि अयोग्य होने के बावजूद मेनहर्ट को परामर्शी नियुक्त कर जो गलती हुई, उसे छुपाने के लिए और अपनी चमड़ी बचाने के लिए नगर विकास मंत्री और संबंधित अधिकारियों द्वारा गलती पर गलती की गयी. यह उनके भ्रष्ट आचरण का ज्वलंत उदाहरण है. इसके लिए दोषियों को दंड मिलना चाहिए था, परन्तु उन्हें पुरस्कार मिलते रहे. इसका नतीजा है कि रांची शहर के सिवरेज ड्रेनेज परियोजना का डीपीआर तैयार करने के लिए मेनहर्ट की बहाली के डेढ़ दशक बीत जाने के बाद झारखंड की वर्तमान सरकार ने 2020 में पुनः निर्णय लिया है कि रांची शहर के सिवरेज ड्रेनेज निर्माण के लिए नये सिरे से परामर्शी नियुक्त किया जायेगा. मेनहर्ट द्वारा तैयार डीपीआर दो बार संशोधित किये जाने के बाद भी योजना निर्माण के पहले चरण का कार्य भी पूरा नहीं हो पाया. योजना चार चरणों में पूरी होने वाली थी. इस मामले में जिन्होंने गलती पर गलती की, वे तो पुरस्कृत होते रहे, पर एक व्यक्ति की गलती का खामियाजा भुगतने के लिए पूरा रांची शहर अभिशप्त है. एक व्यक्ति के भ्रष्ट आचरण का सिला समाज कैसे भोगता है, यह मामला इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है. इस प्रकरण में शासन के तीनों अंग-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिकाका रहस्यमय मौन कचोटने वाला है. इससे समस्या उलझी है, उलझन घनीभूत हुई है, सुशासन कलंकित हुआ है, सव्यचार बेपर्द हुआ है, बदनीयत खुल कर सामने आ गयी है. ध्यान देने योग्य एक बात यह भी है कि इस कालखंड में जब-जब झारखंड में राष्ट्रपति शासन लगा, तब-तब जांच आगे बढ़ी, परन्तु राष्ट्रपति शासन हटने के बाद फिर वही ‘ढाक के तीन पात’. यह राजनीतिक भ्रष्टाचार का एक फूलप्रूफ मामला है. आज नहीं तो कल इस मामले में न्याय होगा, मौन टूटेगा, दोषी दंडित होंगे, पर तब तक बहुत देर हो चुकी होगी.
डिस्क्लेमर- (लेखक झारखंड के पूर्व मंत्री रह चुके हैं. यहां प्रकाशित विचार उनके निजी हैं. इसका न्यूज विंग से कोई संबंध नहीं है.)
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