
Faisal Anurag
उभरते असंतोष राजनीतिक प्रक्रिया में किसी भी राजनीतिक दल के लिए वह संकेत है जिसे समय रहते यदि नहीं दूर किया गया तो कर्नाटक,मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसी घटना की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. झारखंड कांग्रेस में विधायकों के असंतोष की डोर दिल्ली दरबार तक दस्तक दे चुकी. कुछ समय से कांग्रेस के कुछ विधायकों के बीजेपी के संपर्क में होने की चर्चा मीडिया में आ चुकी है. हालांकि कांग्रेस के असंतुष्ट विधायक इसे पार्टी का अंदरूनी मामला बता रहे हैं. असंतोष के कारण भी उभरकर सामने आ गये हैं. हेमंत सोरेन कैबिनेट में एक पद रिक्त है और उसपर कई विधायकों की निगाह है. लेकिन इरफान अंसारी ने यह कहकर कि सभी को मौका मिलना चाहिए कुछ और संकेत दिया है.
दिसबंर 2019 के अंत में सरकार का गठन हुआ था और उसके सात माह ही पूरे हुए हैं. लेकिन मंत्रीपद का लालच उभरता जा रहा है. कोई भी पार्टी सभी को मंत्रीपद नहीं दे सकती है, लेकिन राजनीति का जो नया चेहरा उभरा है उसमें जनसेवा और पार्टी प्रतिबद्धता की अवधारणा बहुत पीछे जा चुकी है. असंतोष एक लाइलाज बीमारी बन गया है, जिसके इलाज की कोई दवा नेतृत्व नहीं निकाल पाया है.
कर्नाटक में कैबिनेट में फेरबदल के बाद असंतोष और गहरा हो गया था और कांग्रेस के विधायक भाजपा के खेमे में शरण लेने जा पहुंचे थे. भारत राजनीति के उस दौर में है, जहां चुने गये प्रतिनिधियों के विचारों के प्रति किसी तरह के आग्रह को बदलते अक्सर देखा जा सकता है.
राजस्थान में भी असंतोष की एक बड़ी वजह मुख्यमंत्री का पद था, जिस पर सचिन पायलट अपना हक समझते रहे हैं. लेकिन अनुभवी गहलोत को यह पद सौंपे जाने के बाद से ही वे असंतुष्ट उस हालत में भी हो गये, जब वे राज्य के उप मुख्यमंत्री थे. यानी एक बात साफ है कि केवल मंत्रीपद ही असंतोष का कारण नहीं है, बल्कि उसके पीछे बाह्य शक्तियों की भी भूमिका होती है. मध्यप्रदेश में जिन विधायकों ने इस्तीफा दिया था, उसमें ज्यादातर कैबिनेट का हिस्सा थे, बावजूद पाला बदला और भाजपा के सरकार में भी उनमें से कुछ कैबिनेट का हिस्सा बने.
लेकिन वहां भी यदि मंत्रीपद ही पाला बदल का कारण नहीं रहा था, बल्कि उसके पीछे बड़े पैमाने पर धन की भूमिका रही होगी. भारत की राजनीति उस दौर को पीछे छोड़ आयी है, जब वास्तविक मतभेद के कारण दलबदल की इक्कादुक्का घटना होती थी. 1967 के बाद के ज्यादतार दलबदल केवल और केवल धन और सत्ता बल के कारण हुए हैं.
यह आम धारणा है कि लोकतंत्र केवल चुनावों की निरंतरता मात्र की परिघटना नहीं है, बल्कि उसमें राजनीतिक विचार की भी अहमियत है. यदि राजनीति विचारविहीन हो जाएगी तो लोकतंत्र का चेहरा नाम मात्र के लिए ही बचा रहेगा. देखा जा रहा है कि बड़े-बड़े लेख लिखकर विचारों की मौत का फरमान जारी करने की बेशर्मी की जा रही है. जब बर्लिन की दीवार गिरी थी और शीतयुद्ध का दौर अतीत बना था, फ्रांसिस फुकोयामा ने इतिहास के अंत यानी पूंजीवाद की अंतिम जीत के तौर पर रेखांकित किया था. अमेरीकी नागरिक अब राजनीतिक विचारों की विविधता की दुहाई दे रहा है. दलबदल और सत्ता हाइजैक का यह राजनीतिक दौर बेहद अंधेरी सुरंग की तरह बनता जा रहा है.
लोकतंत्र में मजबूत राजनीतिक प्रतिस्पर्धा भी जरूरी है. लेकिन भारत में जिस तरह विपक्ष के दल अपंग अवस्था में पहुंच गये हैं, वह भी घातक प्रवृति है. कांग्रेस का यह दायित्व था कि वह फ्रंटफुट
से इन हालातों का मुकाबला करता, लेकिन 2019 के चुनावों की करारी के हार के बाद तो उसके नेतृत्व ने जिस तरह का प्रदर्शन किया है, उससे पार्टी पर भी उनकी पकड़ ढीली हुई है. कांग्रेस की सरकारों को गिराने में भाजपा की बड़ी भूमिका है. लेकिन कांग्रेस नेतृत्व भी इसके लिए जिम्मेवारी से नहीं बच सकता है.
उसने अपने नेताओं को पार्टी में बनाये रखने का सक्रिय जतन नहीं किया. उभरते असंतोष को समय पर दूर नहीं किया. कर्नाटक की साझा सरकार और मध्यपप्रदेश की सरकार को वह गंवा चुकी है. राजस्थान में अनिश्तिता बनी हुआ है. गांधी परिवार के अलावे कांग्रेस में दूसरा ऐसा कोई नेता नहीं है, जिसका अखिल भारतीय असर हो और गांधी परिवार बिल्कुल आत्मघाती प्रवृति की निराशा जैसी स्थिति बना रहा है.
कांग्रेस का संकट बुधवार को राज्यसभा सदस्यों के साथ आलाकमान की हुई वह वर्चुअल बैठक भी है, जिसमें सानिया गांधी की उपस्थिति में नेताओं ने हालात को लेकर चिंता प्रकट किया और अपना रोष भी प्रकट किया. द हिंदु की खबर के अनुसार, एक नेता ने तो सोनिया गांधी को भी कड़े शब्दों में अपनी तकलीफ का इजहार किया. राज्यसभा के सदस्य कपिल सिब्ब्ल ने तो पार्टी की कार्यशैली पर सवाल उठाया, समन्वय की कमी की ओर इशारा किया और “आत्मनिरीक्षण” का आह्वान किया.
नवनिर्वाचित राज्यसभा सदस्य राजीव सातव ने इसे भी सवाल उठाए. राहुल गांधी के टीम सदस्य सातव ने एक तरह से डा मनमोहन की यूपीए 2 सरकार को पार्टी के इस हालात के लिए जिम्मेदार बता कर एक बार फिर पार्टी के भीतर संकट के नए आयाम की ओर इशारा किया. लेकिन इन रश्मी बैठकों से कांग्रेस अपने संकट का निपटारा नहीं कर सकती उसे पार्टी के भीतर बड़े बदलाव की जरूरत है .
लेकिन बैठकों से कांग्रेस अपने संकट का निपटारा नहीं कर सकती, उसे पार्टी के भीतर बड़े बदलाव की जरूरत है और पार्टी को ज्यादा जिम्मेदार बनाते हुए आतंरिक लोकतंत्र को रूप देना होगा. कांग्रेस को उन हालातों को भी समझने की जरूरत है कि किस तरह 12014 के बाद के भारत में लोगों के सोचने में बदलाव आया है. संकट का एक बड़ा कारण यह भी है लोगों में एक अज्ञात किस्म की निराशा है. इसका गहरा असर यह है कि लोकतंत्र में चली वह अंधराष्ट्रवादी बयार भी है, जो एकाधिकारवाद की वकालत करती है. केंद्रीय नेतृत्व को चाहिए कि वैचारिक बदलाव के साथ वह एक ऐसी प्रक्रिया भी अपनाये ताकि असंतोष का निदान समय पर हो सके.
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