
जयपाल सिंह मुंडा एक बहुमुखी प्रतिभावाले और झारखंड के इतिहास में एक ऐसे किरदार हैं जिनको भुलाया नहीं जा सकता. एक साधारण आदिवासी परिवार से निकलकर वे इंग्लैंड तक पहुंचे और वहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई. आईसीएस में सेलेक्शन के बाद भी उन्होंने अंग्रेजों की सबसे बड़ी नौकरी इसलिए छोड़ दी कि वे हॉकी खेलना चाहते थे . तीन जनवरी को उनकी जयंती है. पढ़िए उनकी बहुआयामी शख्सीयत की दिलचस्प कहानियां.
अश्विनी पंकज
कॉसग्रेव के निर्देश पर कुछ दिनों बाद ही जयपाल सिंह को डार्लिंगटन से कनटरबरी के संत अगस्तीन कॉलेज में भेज दिया गया. धार्मिक शिक्षा और पादरी बनने के लिए. लेकिन दो टर्म की धार्मिक पढ़ाई के बाद बिशप ऑर्थर मेसाकनाइट ने जो वहां के वार्डन थे और जिनका संत जॉन कॉलेज के प्रेसीडेंट डॉ जेम्स से नजदीकी संबंध थे, उन्होंने जयपाल को ऑक्सफोर्ड भेज दिया. 1922 में संत कॉलेज, ऑक्सफोर्ड से ही उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की. जयपाल सिंह मुंडा बहुत ही मेधावी छात्र थे. उनकी मेधा मात्र ऑक्सफोर्ड की किताबी दुनिया से नहीं बन रही थी. वे लिखते हैं, पढाई को लेकर मैं हमेशा गंभीर रहा. अपने कॉलेज के साथ-साथ दूसरे कॉलेजों में होनेवाले विशेष व्याख्यानों को सुनने जरूर जाता था. लेकिन पढ़ाई से इतर मेरी गतिविधियों ने, जिनमें मैं पढ़ाई के दौरान भाग लिया करता था, जल्दी ही लोगों का ध्यान मेरी ओर खींचा. मैं प्राय: सभी छात्र संगठनों से जुड़ा हुआ था. क्रिश्चियन स्टूडेंट मूवमेंट की कार्यकारी समिति में था. सभा संगोष्ठियों और अकादमिक जगत के महत्वपूर्ण व्यक्तियों से मिलने में हमेशा आगे रहता.
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1928 में, जिस साल उन्होंने ओलिंपिक में भारतीय हॉकी की कप्तानी की और स्वर्ण पदक हासिल कर खेलों के इतिहास में गुलाम भारत को सर्वोच्च शिखर पर लाकर दुनिया को भौचक्का कर डाला था. रंगभेदी यूरोपीय समाज को करारी शिकस्त दी थी, उसी साल वे भारतीय सिविल सर्विस (आईसीएस) के लिए चुन लिए गए थे. लेकिन जब ओलिपिंक के लिए उन्हें भारतीय हॉकी टीम का कप्तान बनाया गया और खेलने के लिए वे छुट्टी मांगने गए, तो उन्हें छुट्टी नहीं दी गई. उस समय जयपाल आईसीएस के प्रशिक्षण में थे.
प्रभारी अंगरेज अधिकारी ने कहा छुट्टी नहीं मिलेगी. तय कर लो आईसीएस बनना है या हॉकी खेलना है. बहुत ही दुविधा की स्थिति थी उनके सामने. उन्होंने अधिकारी से भरसक अपील की कि वह उन्हें छुट्टी दे दें. ओलिंपिक से लौटकर वह ज्यादा मेहनत करके प्रशिक्षण प्रशिक्षण का कोर्स पूरा कर लेंगे. लेकिन अधिकारी अड़ा रहा. तब जयपाल सिंह ने आईसीएस के कैरियर को दांव पर रखते हुए प्रशिक्षण छोड़ने का फैसला किया. उन्होंने लिखा है, मैं एक पल के लिए ठिठका. मुझे आईसीएस और हॉकी, इनमें से किसी एक को चुनना था. मैंने अपने दिल की आवाज सुनी. हॉकी मेरे खून में था. मैंने फैसला किया हॉकी. औपनिवेशिक भारत में और संभवत: पूरी दुनिया में अपने देश और खेल के लिए आईसीएस जैसा प्रतिष्ठित अवसर छोड़ने वाले जयपाल सिंह मुंडा, अकेली शख्सियत हैं.
यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि जिस खेल के लिए उन्होंने आईसीएस छोड़ दिया, उसे भी अपना कैरियर नहीं बना पाए. खेल की दुनिया से भी उन्हें बाहर होना पड़ा. वह भी तब जब वे खेल की दुनिया में बुलंदियों पर थे. सब तरफ उनकी कप्तानी में (हालांकि फाइनल मैच से ठीक पहले उन्होंने टीम छोड़ दी थी.) भारतीय हॉकी की जीत की जय जयकार हो रही थी.
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