क्या आदिवासी संघर्षों की पहचान धूमिल हो रही है?

Faisal Anurag
झारखंड के आदिवासी सुरक्षित क्षेत्रों में लोकसभा चुनाव के वोट शेयर इस बात की ताइद करते हैं कि आदिवासी इलाक में सामाजिक-एथनिक अंतरद्वंद गहरा है. यह इलाका न केवल सदियों से अपने असित्व के संघर्ष का साक्षी है बल्कि उसका लोकतांत्रिक जद्दोजहह अब शिद्दत से जारी है. आदिवासी समाज की राजनीतिक चेतना का विषिष्ट इतिहास है. लोकतंत्र की उसकी गहरी समझ और चेतना ने सामाजिक संबंधों को हर बार नए आयाम के साथ व्याख्यायित किया है.
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झारखंड राज्य के निर्माण के संघर्ष आदिवासी समाजों ने अपनी अस्मिता के संधर्ष के साथ राजनीतिक तेवर प्रदान किया. झारखंड राज्य का संघर्ष आदिवासी सांस्कृतिक चेतना के साथ राजनीतिक तौर पर एक ऐसे राज्य की परिकल्पना से प्ररित था जिसमें विकास की एक विशिष्ट रूपरेखा विकसित होती. आमतौर पर आधुनिक विकास नीति को आदिवासियों ने खारिज किया है.
इसके लिए उनका अपना तर्क है. हालांकि आदिवासी तर्क से संवाद के बजाय उसे नजरअंदाज करने की शासकीय प्रवृति रही है. झारखंड बनने के बाद भी उन तमाम तर्कों और विमर्शों को नजरअंदाज कर दिया गया, जिसमें एक ऐसे समेकित और समावेशी प्रगति की परिकल्पना थी जो प्रकृतिक संसाधनों के जनहक और इकोलॉजी के सरंक्षण से गाइड होने का विचार था. राज्य बनने के बाद से ही आदिवासी आक्रोश और प्रतिरोध की प्रक्रिया थमी नहीं है.
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पिछले पांच सालों में आदिवासी समाजों का यह संघर्ष विभिन्न रूपों में जारी रहा है. हालांकि भाजपा ने इस आक्रोश को कम करने और उसमें अपने लिए जगह बनाने की अनेक रणनीति पर कार्य किया है. लोकसभा चुनाव में उसे आदिवासियों के लिए सुरक्षित पांच क्षेत्रों में अन्य क्षेत्रों की तरह आसान राह नहीं मिली है. हालांकि इन पांच में वह तीन सीटों पर जीत गयी लेकिन यह जीत अन्य क्षेत्रों की तरह उसे खाली गोलपोस्ट जैसा नहीं है. तीनों जीत बहुत सामान्य अंतर का है. खूंटी तो बेहद मामूली अंतर से भाजपा ने जीता है और लोहरदगा में भी यह अंतर बेहद कम ही है.
दुमका से शिबू सारेन की हार, एक ऐसे समय में जब कि आदिवासी संघर्षो ने पिछले पांच सालों से झारखंड में राजनीति के कई तूफान पैदा किया है, एक ऐसे नए राजनीतिक बदलाव का संकेत है जिसके निहितार्थ को गहरायी से विश्लेषित किए जाने की जरूरत है.
हालांकि शिबू सारेन कई पहला चुनाव नहीं हारे हैं. वे तब भी हारे थे जब सांसद रिश्वत कांड हुआ था. लेकिन बाद में उन्होंने वापसी की लेकिन उनकी वह वापसी राजनीति के मुहावरे को कोई नया आयाम नहीं दे पायी. मुख्यमंत्री रहते हुए शिबू सोरेन विधानसभा का चुनाव भी हारे. यह हार उनके लिए सर्वाधिक घातक राजनीतिक परिघटना के बतौर थी.
बावजूद इस की गहराई से राजनीतिक विवेचना नहीं की गयी. इस हार ने आदिवासी समाजों के कई तरह के अंतरविरोध को रेखांकित किया. आदिवासी चिंतकों ने इस अंतरविरोध पर विमर्श करने के बजाय उसे नजरअंदाज करने की प्रवृति की अपनाया. यही नहीं झारखंड मुक्ति मोर्चा ने भी उस हार को एक सामान्य राजनीतिक प्रवृति की तरह ही देखा.
2014 के विधान सभा चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा पांच महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव की लहर को कम करने में कामयाब रहा था. विधानसभा चुनाव में अकेले भाजपा बहुमत तक नहीं पहुंच सकी. उसने आजसू के सहयोग से बहुमत हासिल किया. जबकि लोकसभा चुनाव में उसे 72 सीटों पर बढ़त मिली थी. इस बार भी भाजपा लगभग 70 सीटों पर विधानसभा चुनावों में बढ़त पाने में कामयाब रही है.
बावजूद भाजपा के लिए विधानसभा चुनाव में आदिवासियों के लिए सुरखित 28 सीटों का प्रदर्शन बहुत आसान शायाद ही साबित हो. हालांकि भाजपा ने पिछले चार सालों से आदिवासियों के लिए सुरक्षित क्षेत्रों को नजर में रखते हुए अपनी राजनीति को ढाला है. इस बार लोकसभा चुनाव में सुरक्षित क्षेत्रों में भाजपा गठबंधन को वास्तव में विपक्षी गठबंधन ने गंभीरता से चुनौती दी है. भाजपा गठबंधन को इन इलाकों में 46.76 प्रतिशत वोट प्राप्त हुआ जबकि विपक्षी गठबंधन ने भी 43.45 प्रतिशत वोट हासिल किया है.
इन सीटों पर जहां भाजपा को 2014 की तुलना में वोट शेयर में लगभग 9.5 प्रतिशत का उछाल हासिल हुआ वहीं विपक्ष को 10. 3 प्रतिशत का उछाल हासिल हुआ. विधानसभा चुनाव के नजरिये से इस उछाल के अनेक संभावित निहितार्थ हैं. असली सवाल है कि चुनाव की रणनीति में कौन सा पक्ष ज्यादा कारगर तरीके से आदिवासी सवालों के लिए अनुकूलता देगा वही इन इलाकों में अपनी राजनीतिक स्वीकृति ज्यादा कारगर तरीके से स्थापित करेगा.
आदिवासी समाजों ने चुनाव को भी एक ऐसे कारक के रूप मे स्वीकार किया है, जिसे वह अपनी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से एक गहरे संवाद के तौर पर देखता है. लोकतंत्र और आदिवासी समाजिक संरचना का अंतरसंबंध अन्य समाजों की तुलना में कहीं ज्यादा गहरा है. इसी तथ्य को जयपाल सिंह ने संविधान सभा की बहस में रेखांकित किया था.
जयपाल सिंह ने आदिवासी समाज में अंतरनिहित लोकतात्रिक प्रक्रियाओं की ओर देश का ध्यान आकर्षित किया था. यह बहस बेहद दिलचस्प है. पिछले एक दशक में आदिवासी समाज के अंदर अनेक तरह की प्रवृतियां हावी है. उसमें बदलाव भी स्पष्ट दिखता हे. बावजूद इसके आदिवासी समाज का वह आग्रह अपनी जगह गहरायी से मौजूद है, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण को लेकर एक विशिष्ट नजरिया है. आदिवासी इलकों का वोट पैटर्न इससे ही निर्देशित है.
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