Faisal Anurag
किसी भी तरह का प्रोपगेंडा कभी भी हकीकत को देर तक छिपा कर नहीं रख सकता है. ये स्थापित सत्य है. अरविंद सुब्रह्मण्यम ने भारत के आर्थिक आंकड़ों के साथ फर्जीवाड़ा का पर्दाफाश दुनिया के बड़े मंचों पर किया है. सुब्रह्मण्यम उस आर्थिक सलाहकार टीम के प्रमुख रहे हैं जिसने यह सब किया है.
प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार के प्रमुख के पद से उनके इस्तीफ के कारणों की कम ही चर्चा मीडिया ने की है. रघुराम राजन का इस्तीफा रहा हो या फिर उर्जित पटेल का सब के पीछे की कहानी कमोवेश यही है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आर्थिक सलाहकार परिषद में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति है जो अर्थशास्त्री के तौर पर चर्चा में रहा हो. असल में लोगों के साथ चल रही भारत की इकोनामी यदि आज बेहद संकट में है तो इसके कारकों की अब भी गहरी पहचान नहीं किया जाना और भी भयावह हो सकता है.


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भारत की जडीपी में भारी गिरावट और तमाम कोर सेक्टर इकोनोमी में आयी हंफनी के कारण आंतरिक प्रबंधन कौशल ओर प्राथमिकताओं की गलत पहचान है. यह जाहिर करता है कि वोटरों को बड़े पैमाने पर आकर्षित करना एक बात है लेकिन आर्थिक विकास की गति को और तेज करना बिल्कुल अलग किस्म के नजरिये की मांग करता है. भारत के प्रधानमंत्री ने जब हार्वड की तुलना में हार्डवर्क को इकोनोमी की कामयाबी का राज बताया था तब उनका निशाना विशेषाता को डिमोनाइज करना था.




दरअसल पिछले 70 सालों को ही तमाम समस्याओं का कारण बता कर उन सालों की सत्ताओं को डिमोनाइज करने के अभियान का नतीजा है कि भारत का जीडीपी मात्र 5 प्रतिशत ही है. यही नहीं जारी किये गये आंकड़े बताते हैं कि सभी कोर सेक्टर की विकास दर भारी गिरावट का शिकार हैं. इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में तो यह दर मात्र 0.6 प्रतिशत ही है. यह ऐतिहासिक गिरावट बताता है कि भारत एक स्ट्रक्चरल आर्थिक संकट का शिकार है. और इसके लिए एकमात्र जिम्मेदारी सरकार की है.
इस तरह की भयावह गिरावट तो 2008-9 के दौर में भी नहीं आयी थी. जबकि दुनिया भारी मंदी का शिकार हुई थी. दरअसल यह संकट जिस तरह आया है, कहा जा सकता है कि उसके लक्षण को ले कर जो चेतावनियां दी जा रही हैं, उनपर कभी भी ध्यान नहीं दिया गया. चेतावनी देने वालों को डिमोनाइज करने या उनकी हंसी उड़ाने में ऊपर से नीचे तक का तंत्र लगा रहा. अब भी नहीं लगता है कि सरकार विशेषज्ञों की चेतावनियों को गंभीरता से लेने को तैयार है.
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भारत का यह संकट जितना आर्थिक है, उतना ही राजनीतिक भी है. हालांकि इस तरह की चर्चा कम ही हो रही है. लेकिन दुनिया की अनेक संस्था इस ओर लंबे समय से इशारा करते रहे हैं. इसमें आर्थिक रेटिंग करने वाली संस्था और उसके विशेषज्ञ भी शामिल रहे हैं. डॉ मनमोहन सिंह ने तो राज्यसभा में साफ चेतावनी दी थी कि मोदी सरकार की नीतियों के कारण भारत की विकास दर में गिरावट तय है.
उन्होंने जब नोटबंदी की संगठित लूट की संज्ञा दी थी तब उसे बेहद अनुदार टिप्पणी माना गया था. लेकिन अब सभी मानने लगे हैं कि न केवल नोटबंदी व जीएसटी बल्कि सरकारी एजेंसियों के सेलेक्टिव इस्तेमाल का भी असर इकोनोमी पर भी पड़ा है. इकोनोमी की दुर्दशा में ये कारक भी अहम है. इस तरह की बात करना भी उस समय आसान नहीं है जब मीडिया पूरी तरह प्रोपगेंडा की हथियार बन गया है और सोशल मीडिया में सरकार की नाकामयाबियों को भी बड़ी सफलता बताने की होड़ लगी हुई है.
अब तो कारपारेट के अंदर भी बेचैनी है और इंडस्ट्री की ओर से यह इशारा किया जाने लगा है कि वह नीतियों को ले कर संतुष्ट नहीं है. सरकार की प्राथमिकताओं को ले कर भी बहस जारी है और उनका असर भी इकोनोमी की बदहाली से जोड़कर देखा जा रहा है.
देश में इकोनोमी के ऐसे जानकारों की भीड़ बढ गयी है जो केवल सरकार का गुणगान ही करती है और हालात की गंभीरता से लोगों का ध्यान भटकाने का तर्क खोजती रहती है. ये बाते कठोर तो लग ही सकती हैं, लेकिन बिल्ली के गले में घंटी बांधने में की गयी हर पल की देरी आत्मघाती होती जा रही है. अब बैंकों के विलय से इकोनोमी में उत्साह की बात की जा रही है, लेकिन विशेषज्ञ मान रहे हैं कि यह बेहतर प्रबंधकीय कौशल नहीं है. इसका असर सकारात्मक शायद ही होगा.
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