
स्वामी दिव्यानंद
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काको लागूं पाय,
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताए ।।
भारतीय संस्कृति के अंतर्गत गुरु शिष्य परंपरा एक महान संस्कृति है, मानव शरीर को धारण करना 84 लाख योनी के पश्चात जीवात्मा के लिए बड़ी एवं श्रेष्ठतम उपलब्धि है, मानव शरीर को पाने का एकमात्र उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति है, यानी आत्मा का परमात्मा में विलीन हो जाना, उस परमात्मा से भी आगे पूजे जाने वाला पात्र गुरु हैं, अवर्णनीय है, यह भावना! भक्ति की पराकाष्ठा है, साधन मात्र नहीं है, वह साधन मात्र धन्यवाद या कृतज्ञता का पात्र नहीं, जो साध्य तक पहुंचा दिया, जन्म-जन्म का ऋणी हो जाता है शिष्य!
आज के इस लेख के माध्यम से गुरु-शिष्य के बीच जो शिष्टाचार और मर्यादा जो हमारे पूर्वजों ने बताया है उसका वर्णन कर रहा हूं…..
- शिष्य को गुरु के आसन या शैय्या पर बैठना या सोना नहीं चाहिए, यात्रा के दौरान वाहन में या कुशासन पर छूट है
- गुरु के समक्ष किसी वस्तु का सहारा लेकर या पैर फैलाकर नहीं बैठना चाहिए
- शिष्य को अपने गुरु की अपेक्षा अपने वस्त्र, केश, तिलक तथा कम ही रखनी चाहिए
- शिष्य को अपने गुरु के शयन के पश्चात ही सोना चाहिए और उनके जगने के पूर्व ही उठ जाना चाहिए
- गुरु जब क्रोधित हो, तो उनके मुख के ऊपर दृष्टि नहीं डालनी चाहिए
- गुरु का नाम का उच्चारण परोक्ष में भी नहीं करनी चाहिए
- गुरु की गति, भाषण, चेष्टा आदि की भी नकल नही करनी चाहिए,
- गुरु के प्रति हृदयतल से समर्पण भाव रखनी चाहिए,
- इसीका प्रतीक शाष्टांग दंडवत होता है,
- गुरुधाम में कभी भी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए, फल, फूल, द्रव्यादि के साथ ही उपस्थित होना चाहिए,
- गुरु के समक्ष बैठने का प्रयास ना ही करना चाहिए
विशेष
गुरु का भी परम कर्तव्य है कि शिष्य के प्रति पुत्रवत भाव रखते हुवे निःस्वार्थ भाव से, कुछ भी गुप्त ना रखते हुए ज्ञान देते रहना चाहिए. आपत्ति काल को छोड़कर अध्ययन के दौरान शिष्य को विघ्न ना पहुंचाय.
ध्यान मूलं गुरु मूर्ति, पूजा मूलं गुरु पदम्।
मन्त्र मूलं गुरूर वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरु कृपा।।
“”गुरुचरणकमलाभ्यो नमः””
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