Faisal Anurag
तबाह इकोनॉमी का पूरा दर्द जीडीपी आंकड़ों से बयान नहीं होता है. बावजूद इसके जीडीपी का माइनस 23 में होना भी हकीकत का पूरा बयान नहीं है. आंकड़े आने के बाद मुख्य आर्थिक सलाहकार के सुब्रमण्यम इस हकीकत को अब भी नकार रहे हैं. भारत सरकार के मंत्री कहते रहे हैं कि भारत को आर्थिक विकास को कोरोना प्रभावित नहीं कर पाया. वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने तो पूरे दंभ से कहा था कि भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर अप्रभावित रहेगी. केंद्र सरकार के इस डिनायल मोड को लंबे समय से महसूस किया जाता रहा है. लॉकडाउन के पहले की तिमाही में ही भारत की विकास दर 3.1 पर सिमट गयी थी.
इस तथ्य पर गौर करने की जरूरत को अब नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि भारत के पांच-सात कारपोरेट घराने इस आपदा के समय भी लगातार लाभ में हैं. और शेष इंडस्ट्री परेशानी में. मध्यम और लघु उद्योग जिस तरह कराह रहे हैं उनका दर्द तो सरकार सुनने को भी तैयार नहीं है. सरकार ने जिन 20 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा की थी, उससे भी मध्यम और लघु क्षेत्र का संकट उबर नहीं पाया है. हालांकि यह पैकेज प्रोत्साहन देने के बजाय कर्ज देने के सिद्धांत पर आधारित है.


भारत की जीडीपी की गिरावट को यदि दुनिया की बड़ी इकोनॉमी वाले देशों की तुलना में देखा जाए तो हालात और भी गंभीर हैं. केवल स्पेन और ब्रिटेन ही वे देश हैं जिनकी जीडीपी की गिरावट माइनस 22 में है. चीन इकलौती बड़ी अर्थव्यवस्था है जिसने 3.5 प्रतिशत की विकास दर हासिल किया है. अमेरिका की जीडीपी मानइस 10.6 है. कोरोना का असर तो सभी देशों पर पड़ा है, लेकिन भारत में जो तबाही है, वह ज्यादा गंभीर है. भारत दुनिया की तीसरी चौथी सबसे बडी इकोनॉमी वाले देश का दावा करता रहा है. 2019 के चुनाव के बाद तो मोदी सरकार 5 ट्रिलियन की इकोनॉमी का राग अलापती रही है. लेकिन जिन बुनियादी कारणों से भारत की इकोनॉमी तबाही की ओर गयी है, उसे कभी गंभीरता से नहीं लिया गया है. संगठित क्षेत्र का रूझान पूरे भारत की आर्थिक हकीकत का दूसरा पहलू है.


भारत में जिस तरह असंगठित क्षेत्र उपेक्षा के शिकार रहे हैं, वह पूरी इकोनॉमी की एक गंभीर बीमारी है. भारत के रोजगार का 90 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र से ही मुहैया होता है. राहुल गांधी ने फरवरी महीने में जिस आर्थिक सुनामी का अंदेशा जताया था वह दिखने लगा है.
20-21 और 21-22 के वित्त वर्ष तक भारत में आर्थिक चमत्कार की उम्मीद नहीं है. यह तो अब कई अर्थशास्त्री भी कह रहे हैं. रिजर्व बैंक के गवर्नर ने भी पिछले दिनों अर्थव्यवस्था के गति आने में देरी की बात को स्वीकार किया. लेकिन वित्त मंत्रालय जिस तरह डिनायल मोड में नजर आ रहा है, उसका दूरगामी असर पड़ने की संभावना है. पूर्व वित्तमंत्री पी चिदबंरम ने मोदी सरकार पर आर्थिक प्रबंधन में विफल रहने का आरोप लगाया है. और कहा है कि उन चेतावनियों को गंभीरता से नहीं लेने का नतीजा आगे भी आने वाला है. जो आर्थिक क्षेत्र के विशेषज्ञ कहते रहे हैं. लेकिन मोदी सरकार हावर्ड बनाम हार्डवर्क के जुमले से बाहर ही नहीं निकल सकी है.
इस तथ्य को खंगालने का वक्त आ गया है कि चंद बड़े कारपोरेट हितों से पूरे भारत के लोगों को लाभ नहीं मिलने जा रहा है. बड़े कारपोरेट घराने आम आदमी के लिए रोजगार पैदा करने में भी अक्षम साबित हुए हैं. भारत में जिस गति से लोगों का रोजगार जा रहा है, वह नीतियों के उन पहलुओं को ही रेखांकित करता है जो लोगों के हितों से परहेज करने पर आधारित है. मजूदर हों या किसान. या मध्यवर्ग. जिन मुसीबतों के भंवर में वे फंसे हुए हैं, उसके और गहराने का संकट है.