
Priyanka Saurabh
कोरोना महामारी के चलते कुछ समय से लोग अपने घरों में बंद रह रहे हैं. आज काम के अभाव और घर में अकेलेपन के चलते उदासी का भाव लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर सीधा असर कर रहा है. कुछ शोध संस्थाएं कह रही हैं कि इसका सीधा असर पुरुषों पर पड़ रहा है, तो कुछ कह रही हैं कि मानसिक दोष की शिकार आजकल महिलाएं ज्यादा हो रही हैं. घर के सभी सदस्यों के घर में बंद होने के कारण उन पर काम और जिम्मेवारी पहले से दोगुनी-तिगुनी हो रही है, साथ ही वो अपने पुरुष साथी के काम के भविष्य के बारे सोच कर भी चिंतित हो रही हैं. मुझे पहली बात से ज्यादा अच्छी दूसरी बात लगी और शायद सच भी यही है.
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महिलाओं को इस देश ने, कहा देवी समान।
मिला कभी इनको नहीं, इनका ही स्थान।।
शास्त्र-पोस्टर में सदा, करते हैं गुणगान।
मगर कभी घर में हमीं, नहीं पूछते ध्यान।।
ऐसा हो भी क्यों न ? विकसित से विकाशील देशों को देखें तो हर जगह घर के काम और बच्चों की जिम्मेवारी महिलाओं को सौंपना पुरुष अपना प्रभुत्व समझते हैं. यहां तक कि विकसित देशों में उच्च-पदों पर कार्यरत महिलाओं पर भी पुरुषों का ये प्रभुत्व कायम है. और जब कोरोना के चलते सब घर में बंद हैं तो महिलाओं पर ये जिम्मवारी का बोझ आना लाजिमी है. हालांकि सोच बदली है. पुरुषों ने लैंगिक समानता को माना है, पर बात जब रसोई के काम और बच्चों को संभालने की आती है, तो उन्हें ये बात गंवारा नहीं लगती. उनके भीतर का मर्द कहीं न कहीं फुंफकार उठता है और इसके परिणाम भुगतती है, उस घर की महिला चाहे वो अनपढ़ हो या अफसर.
बात चली है कोरोना के चलते महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य की, जी हां, हर घर में काम का बोझ बढ़ा है जिसके चलते महिलों पर दिमागी और शारीरिक कार्यों का बोझ बढ़ा है. इसका मुख्य कारण है 21वीं सदी में भी महिलाओं पर पुरुषों का दबदबा. आज भी दुनिया के सभी देशों में यह माना जाता है कि चाहे महिला बाहर के कामों को बड़ी शिद्द्त से करती हो मगर वो बनी है घरेलू कामों के लिए, ये वो सोच है जो महिलाओं को मानसिक तौर पर आज प्रताड़ित कर रहा है.
घर-गलियां या नौकरी, सहती ये दुर्भाव।
नर के मन में आज भी, भरे भेद के भाव।
नारी है नारायणी, देवी का अवतार।
कहने भर की बात सब, सुनता कौन पुकार।।
क्या पुरुषों का ये कर्तव्य नहीं बनता कि वो अपने खाली समय में घर के कामों में हाथ बंटायें. वैज्ञानिक शोधों ने तो कभी ये नहीं बताया कि ये काम पुरुष करेंगे और ये महिलाएं. सच्चाई तो ये है कि ये अंतर समाज और परिवार से आता है. शुरू से लड़कों के नाम के साथ परिवार की शान को जोड़ कर समझा जाता है और उसे भविष्य का मुखिया पुकारा जाता है जबकि लड़कियों को संस्कारी तब माना जाता है, जब वो घर के कामों में निपुण हो. लड़कियों को समझाया जाता है कि एक अच्छी व सुशील तभी मानी जाती है, जब वो घर के कामों में निपुण हो.
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सामाजिक चिंतक टोनी पार्कर ने कहा है कि लड़कों में ये मर्दानगी ऐसे ठूंस-ठूंस कर भर दी जाती है कि उनका पुरुषत्व जीवन भर महिलों पर अपना प्रभुत्व जमाता रहता है और लड़कियां जीवन भर चूल्हे-चौके के कामों में पिसती रहती हैं. कामकाजी महिलाओं का भी विश्व के हर देश में यही हाल है. लैंगिंक समानता देकर उसका ढोल पीटना और मर्दानगी की मानसिकता से मुक्ति दो छोर है. हमें इन्हें एक करना है तो पुरुषों को समझना होगा कि जब महिला घर से बाहर निकल कर पुरुषों के बराबर ही नहीं उनसे ज्यादा कमा कर भी ला सकती है, घर भी संभाल सकती है तो क्या वे मित्रवत व्यवहार से घर के कामों में उनका हाथ नहीं बंटा सकते हैं? हमें धनार्जन को श्रेष्ठता देनी बंद करनी होगी. घर के काम को बाकी कामों से ऊपर समझना होगा.
आज के आधुनिक पुरुष को समानता की परिभाषा देने के बजाय बराबरी का हाथ बढ़ाना होगा. तभी महिला वास्तविक समानता को हासिल कर पायेगी. कोरोना के इस भयावह समय में देखिये कि घर पर रह कर पूरा दिन एक महिला क्या-क्या काम करती है व काम के साथ-साथ वो अपने पति की सुविधा और शान व बच्चों के भविष्य के लिए क्या-क्या स्वप्न बुनती है. सारा दिन शारीरिक मेहनत करती है और सोते वक्त सोच-सोच कर अपने मानस पर जोर देती है. हमें महिला को महिला न मान कर उसका दोस्त बनना होगा और दोस्त तो दोस्त होता है. तभी ये रोग जायेगा और हर घर में ख़ुशी की लहर छायेगी.
अब तक भी परिवेश में, आया नहीं सुधार।
केवल हैं कानून में, नारी के अधिकार।।
नारी की भी अलग से, हो अपनी पहचान।
मित्र रहे ये पुरुष की, हो पूरा सम्मान।।
अब समय आ गया है महिलाओं से पुरुषों को जिम्मेवारी छीननी होगी और दोस्ती का हाथ बढ़ाना होगा. जितना घर महिलाओं का है, उतना पुरुषों का भी तो है वो अपना हक़ क्यों नहीं जता रहे. हक़ जताइये कि हम मिल कर अब घर के बाहर भीतर के काम सभालेंगे.
डिस्क्लेमर- ये लेखिका के निजी विचार हैं.
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