
Naveen Sharma
नामवर सिंह वैसे तो पढ़ने में काफ़ी तेज थे पर एक बार मीडिल क्लास में फेल हो गए थे. हुआ यूं था कि नामवर इतिहास के विषय की परीक्षा में एक प्रश्न का उत्तर लिखने में ही पूरा समय लगा बैठे थे. नामवर कविताएं भी लिखते थे. यूपी कॉलेज के एक कार्यक्रम में महाकवि निराला भी आए थे. नामवर की कविताएं उन्हें पसंद आईं तो उन्होंने नामवर को सौ रुपये पुरस्कार देकर सम्मानित किया.

चंदौली से लोकसभा उपचुनाव लड़ा बुरी तरह हारे

नामवर सिंह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के सदस्य थे. 1959 में पार्टी ने उन्हें चंदौली से लोकसभा उपचुनाव के लिए खड़ा किया. घर के सभी लोगों की राय के खिलाफ वे चुनावी दंगल में उतर गए. उनके पास चुनाव लड़ने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे और ना ही अन्य संसाधन. उन्होंने ने चुनाव प्रचार में अपनी पूरी ताकत लगाई पर वे बुरी तरह हारे. वजह साफ थी नामवर नेतागिरी के लिए नहीं बने थे.


नियति ने तो उनको किसी दूसरे क्षेत्र का महारथी बनाना तय कर रखा था. चुनाव लड़ने के समय ही काशी विश्वविद्यालय की नौकरी भी नामवर के हाथ से निकल गई. ऐसी विकट स्थिति में भी उन्होंने खुद विचलित नहीं होने दिया. वे उस काम में जुट गए जिसके लिए वे बने थे यानि पढ़ने लिखने और समालोचना करने में.
एक मजेदार खेल ये भी
अगर कोई लेखक या कवि कम अध्ययन भी करे तो अपनी अनुभूति व अनुभवों के बल पर अपनी विद्या में अच्छा कर सकता है पर अगर आप आलोचक हैं तो आपको बहुत अधिक पढ़ना ही पड़ेगा. नामवर इस बात को बहुत अच्छी तरह जानते थे और जबरदस्त पढ़ाकू थे.
वे बिजली चले जाने पर अपने छोटे भाई काशी नाथ सिंह के साथ एक खेल खेलते. काशी घर में रखी किसी किताब का नाम लेते और नामवर तुरंत ही निकाल कर वो किताब हाथ में रख देते. काशी शहर की सभी लाइब्रेरी की किताबें नामवर ने पढ़ी थीं. उन्हें तो ये भी याद रहता था कि किस परिचित या मित्र के पास कौन सी किताब है.
वर्ष 1959-60 में वह सागर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सहायक अध्यापक हो गए. 1960 से 1965 तक बनारस में रहकर स्वतंत्र लेखन किया. फिर 1965 में ‘जनयुग’ साप्ताहिक के संपादक के रूप में दिल्ली आ गए. इसी दौरान दो वर्षों तक राजकमल प्रकाशन के साहित्यिक सलाहकार भी रहे. 1967 से ‘आलोचना’ त्रैमासिक का संपादन शुरू किया. 1970 में राजस्थान में जोधपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में नियुक्त हुए और हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने.
1971 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला
1971 में ‘कविता के नए प्रतिमान’ पुस्तक पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. 1974 में थोड़े समय के लिए कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी हिंदी तथा भाषाविज्ञान विद्यापीठ आगरा के निदेशक बने. उसी साल दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में हिंदी के प्रोफेसर के रूप में नियुक्त हुए और 1992 तक वहीं बने रहे. वर्ष 1993 से 1996 तक राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के अध्यक्ष रहे.
दो बार महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलाधिपति रहे. आलोचना त्रैमासिक के प्रधान संपादक के रूप में उनकी सेवाएं लंबे समय तक याद रखी जाएंगी. जैसाकि कवि लीलाधर मंडलोई ने कभी कहा था कि नामवर सिंह आधुनिकता में पारंपरिक हैं और पारंपरिकता में आधुनिक. उन्होंने पत्रकारिता, अनुवाद और लोकशिक्षण का महत्त्वपूर्ण कार्य किया.
प्रकाशित कृतियां
बक़लम ख़ुद – 1951 ई (व्यक्तिव्यंजक निबंधों का यह संग्रह लम्बे समय तक अनुपलब्ध रहने के बाद 2013 में भारत यायावर के संपादन में फिर आया. इसमें उनकी प्रारम्भिक रचनाएं, उपलब्ध कविताएं तथा विविध विधाओं की गद्य रचनाएं एक साथ संकलित होकर पुनः सुलभ हो गई हैं.
शोध-
हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग – 1952, पुनर्लिखित 1954
पृथ्वीराज रासो की भाषा – 1956, संशोधित संस्करण ‘पृथ्वीराज रासो: भाषा और साहित्य’ नाम से उपलब्ध
आलोचना-
आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां – 1954
छायावाद – 1955
इतिहास और आलोचना – 1957
कहानी : नयी कहानी – 1964
कविता के नये प्रतिमान – 1968
दूसरी परम्परा की खोज – 1982
वाद विवाद और संवाद – 1989
साक्षात्कार-
कहना न होगा – 1994
बात बात में बात – 2006
पत्र-संग्रह-
काशी के नाम – 2006
व्याख्यान-
आलोचक के मुख से – 2005
नई संपादित आठ पुस्तकें-
आशीष त्रिपाठी के संपादन में आठ पुस्तकों में क्रमशः दो लिखित की हैं, दो लिखित + वाचिक की, दो वाचिक की तथा दो साक्षात्कार एवं संवाद की.