
Faisal Anurag
आर्थिक संकट किसी भी देश में राजनीतिक कामयाबी के लिए संकट पैदा करता आया है. अनुभव बताता है कि आर्थिक संकट पार्टियों को सत्ता से बाहर का ररास्ता दिखा देती है. लेकिन भारत में यह मिथ टूट सा गया है. इकोनोमी फ्रंट की नाकामयाबियों के बावजूद नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक कामयाबी अपवाद साबित हो रही है. एक ओर जहां अर्थशास्त्री ओर उद्योगजगत के साथ रिजर्व बेंक तक आर्थिक मंदी की बात करने लगा हैं, वहीं मोदी-मिथ राजनीतिक तौर पर अपने वोट बैंक को लगातार मजबूत कर रही हैं. 2019 का चुनाव भी इस अर्थ में कई नई धारणाओं की ओर इशारा करता है. दूसरे कार्यकाल में भी ऐसा लगता है कि सरकार तमाम आर्थिक परेशानियों को दर किनार कर, अपने वोट आधार को मजबूत और विस्तार करने में कुछ मुद्दों पर फोकस कर रही है.
भारत में आटो ओर टेक्सटाइल का संकट तो अब तमाम सीमाओं को पार कर चुका है. टेक्सटाइल सेक्टर ने एक अखबार में आधे पेज का विज्ञापन दे कर संकट की गंभीरता को जताया है. अब रिजर्व बैंक के गवर्नर ने इसके लिए नया तर्क पेश कर दिया है. संकट को ज्यादा गहरा कर निराश नहीं होने की जरूरत है. इसमें भी संभावना की तलाश का उनका तर्क अनोखा ही जान पडता है. हालत की गंभीरता यह है कि समस्याओं को रखने में भी लोगों के भीतर डर दिखता है. विज्ञापन की भाषा तो इसका नमूना ही है. इसमें तकलीफ की गहराई जताने का अंदाज यह बता रहा है.
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आर्थिक क्षेत्र के संकटों की गहराई को कमतर दिखाने की कोशिश न केवल सरकारी स्तर पर किया जा रहा है, बल्कि सरकार समर्थक जानकार भी इसी कोशिश में लगे हुए हैं. राष्ट्वाद के सहारे भाजपा ने जो राजनीतिक कामयाबी हासिल किया है उसी के सहारे सवालों की गंभीरता को नजरअंदाज किए जाने का माहौल भी रचा जा रहा है. यह को विडंबना ही है कि समस्याग्रसत होने के बाद भी भुक्तभोगी अपनी तकलीफ को कमतर भी बताने से परहेज कर रहा है. ऐसा लगता है कि राष्ट्रवाद ही तामाम समस्याओं से उसे मुक्त रख सकेगा. इन हालात का गहराई से अध्ययन किये जाने की जरूरत है.
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है. लेकिन लोकतंत्र के सिकुड़न को भी नजरअंदाज किए जाने की प्रवृति हावी है. यही नहीं निरंकुश सत्ता के लिए जो मनोविज्ञान बन रहा है, उसके खतरों के प्रति भी सजगता का अभाव दिख रहा है. लोकतंत्र का यह दौर नए प्रतीकों के सहारे संचालित किया जा रहा है.
देश में सरकार विरोधी स्वर बेहद सीमित होते जा रहे हैं. ज्यादातर लोग अपनी असहमति को बयान भी करने से साफ बचते दिख रहे हैं. संसद की बहसें भी एक नए दौर में हैं. यह दौर भारत के लिए बिल्कुल नया नया है. बावजूद इसके कई ऐसे तथ्य प्रकाश में लाए जा रहे हैं जो न केवल लोकतंत्र के संकट की ओर इशारा करते हैं, बल्कि आर्थिक क्षेत्र की बदहाली का बयान भी करते हैं. इस संदर्भ को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस चंद्रचूड़ ने जिस तरह व्यक्त किया है वह बेहद अहम है. एक अधिक समावेशी समाज बनाने के लिए कला की महत्ता को रेखांकित करते हुए जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने शनिवार को कहा, ‘मानवता के समग्र विकास के लिए कला को स्वतंत्र रूप से सभी दिशाओं में विस्तारित करने की आवश्यक है. खतरा तब पैदा होता है जब आजादी को दबाया जाता है, चाहे वह राज्य के द्वारा हो, लोगों के द्वारा हो या खुद कला के द्वारा हो.’
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, उन्होंने कहा, ‘विडंबना यह है कि एक वैश्विक रूप से जुड़े समाज ने हमें उन लोगों के प्रति असहिष्णु बना दिया है, जो हमारे अनुरूप नहीं हैं. स्वतंत्रता उन लोगों पर जहर उगलने का एक माध्यम बन गयी है, जो अलग तरह से सोचते हैं, बोलते हैं, खाते हैं, कपड़े पहनते हैं और विश्वास करते हैं.’
इमेजिनिंग फ्रीडम थ्रू आर्ट पर मुंबई में लिटरेचर लाइव इंडिपेंडेंस डे व्याख्यान देते हुए चंद्रचूड़ ने कहा, ‘मेरी समझ से सबसे अधिक परेशानी की बात राज्य द्वारा कला का दमन है. चाहे वह बैंडिट क्वीन हो, चाहे नाथूराम गोडसे बोलतोय, चाहे पद्मावत या दो महीने पहले पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा भोभिश्योतिर भूत पर लगाया गया प्रतिबंध हो. क्योंकि उसमें राजनेताओं के भूत का मजाक उड़ाया गया था. राजनेता इस बात से बहुत परेशान थे कि यहां एक निर्देशक है, जिसके पास राजनीति में मौजूद भूतों के बारे में बात करने की धृष्टता थी.’
सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था, ‘यथास्थिति को चुनौती देने वाली कला राज्य के दृष्टिकोण से आवश्यक रूप से कट्टरपंथी दिखाई दे सकती है, लेकिन यह कला को दबाने का कारण नहीं हो सकता है. हम आज तेजी से असहिष्णुता की दुनिया देख रहे हैं, जहां कला को दबाया या विरूपित किया जा रहा है. कला पर हमला सीधे स्वतंत्रता पर हमला है. कला उत्पीड़ित समुदायों को अधिकार जताने वाले बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ विरोध करने आवाज देती है. इसे संरक्षित किए जाने की जरुरत है.’
कानून, थियेटर और कला समुदाय के प्रतिष्ठित लोगों से भरे कमरे में करीब 50 मिनट तक दिए अपने भाषण में उन्होंने कहा, ‘उत्पीड़ित समुदायों के जीवित अनुभव को अक्सर मुख्यधारा की कला से बाहर रखा जाता है. कुछ खास समुदायों को आवाज देने से इनकार करके कला खुद उत्पीड़ित बन जाएगी और एक दमनकारी संस्कृति विकसित कर सकती है.’
उन्होंने कहा, ‘हमें नहीं भूलना चाहिए कि सभी कलाएं राजनीतिक होती हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो कला केवल रंगों, शब्दों या संगीत का गहना बनकर रह जाती.’
सितंबर 2018 में आपसी सहमति वाले वयस्कों के बीच समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर करने वाला महत्वपूर्ण फैसला देने वाले सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों में से एक जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, ‘जब एलजीबीटीक्यू अधिकारों के मुद्दे पर हमारे पहले के फैसले को चुनौती दी जा रही थी, तो वकीलों में से एक ने उल्लेख किया कि सुप्रीम कोर्ट के पहले के दौर में, पीठ से आए सवालों में से एक था, ‘क्या आपने कभी किसी समलैंगिक से मुलाकात की है?’ हमें कई दशकों के बाद एक गलत को सही करना था.’
इस दौरान अयोध्या मुद्दे से जुड़े सवाल पर उन्होंने कहा, ‘मैं बहुत ही साधारण कारण से इस मामले पर बात नहीं करुंगा क्योंकि मैं उस पीठ का हिस्सा हूं जो इसकी सुनवाई कर रही है. लेकिन हर नागरिक को न्याय पाने का अधिकार है.’
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