
Soumitra Roy
जीवन में कई मौके आते हैं, जब आपको अपनी जिजीविषा या मौत में से किसी एक को चुनने का मौका मिलता है. सभी की हालात से लड़ने की क्षमता एक सी नहीं होती. दर्द सहने की भी नहीं. सभी अपने दिमाग में चल रही उथल-पुथल को सहजता से साझा नहीं कर पाते.
मैंने कई लोगों की मुस्कुराहट के पीछे छिपे दर्द को महसूस किया है. आंखें, स्वर, टोन, हाव-भाव से समझ आता है कि इंसान भीतर से टूट रहा है. सवाल यह है कि भारत में इस अनकहे को समझने, सुलझाने, सुधारने-संवारने और साथ देने का कोई सिस्टम नहीं है.
मानसिक तनाव कब अवसाद में बदल जाये, कोई नहीं कह सकता. आमतौर पर इसे बीमारी मानते हैं. लोग कयासबाजी करते हैं. अनकहे को भी जजमेंटल होकर अपने शब्दों से जोड़कर कहानियां बना लेते हैं. असल में यह हमारे समाज की सबसे बड़ी खराबी है. इन कहानियों के कारण ही अवसादग्रस्त लोग अक्सर अकेला कोना ढूंढ लेते हैं.
जिन्हें हम जानते नहीं, जिनकी जिंदगी हमने जी नहीं, उनके बारे में हम जब जजमेंट देते हैं तो यह इंसान की चारित्रिक रूप से हत्या करने के बराबर है. ठीक उसी तरह, जैसे पुलिस या सियासतदां किसान की खुदकुशी को प्रेम संबंध या शराबखोरी बताकर फ़ाइल बंद कर देते हैं.
बजाय ऐसा करने के, देश में अवसादग्रस्त या मानसिक परेशानी से जूझ रहे लोगों की पहचान और उसे उबारने के एक मजबूत सिस्टम की बात करें. आज एक्टर सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी ने एक बार फिर ऐसे सिस्टम की ज़रूरत को महसूस कराया है. याद रखें. हर जान कीमती होती है. यह बात व्यक्ति के न रहने पर पता चलती है.
ये लेखिका के निजी विचार हैं.