
Birendra Kumar Mahto
बीच चौराहे में
रोते हैं हम अपने ही अपनों की लाश पर,
छलनी कर देते हैं चंद सेकेंड में सीने अपने ही भाई-बंधु के,
बूढी हड्डियों का बनेगा सहारा सोच,
बनाये थे आशियाने,
बिखेर देते हैं चंद सेकेंड में सारे के सारे सपनें,
सजाये थे अरमान दिलों में
कई-कई बार ठेस लगी
जो हल्के में मौका पा कर देते हैं कत्लेआम देखो, बीच चौराहे में…!
कफन
आंसूओं में डूबी थी हसरतें
हमारी कई-कई जख्मों का इल्जाम था हमारे सर,
यूं तो इरादा न था कत्ल-ए-आम का
पर उनकी कातिलाना अदा देख रोक न सका
जुल्म-ए-सितम ढाने को, बदकिस्मत वो थीं या मैं देखो,
बैठे हैं मेरी मय्यत में
जनाजा गुजर रहा हमसे पहले हमारे ही कफन पर…!
विडम्बना
ये कैसी विडम्बना है जीवन की
सब कुछ होते हुए भी न जाने क्यों बेचैनी सी होती है
और भी ज्यादा ज्यादा पाने की
न जाने क्यों खुशहाल जिंदगी में
अक्सर रोने का मन करता है बनी-भूति,
मेहनत-मजदूरी के दिन सुकुन भरी जिंदगी जिया करता था
अक्सर, दो बखत की नून-रोटी से काफी खुश था
आज इस उंचाइयों पर कुछ भी अच्छा नहीं लगता
आखिर किसके लिए मेहनत करता हूं
किसके लिए कमाता हूं जिंदगी की इस भागमभाम रेला में सिर्फ तनाव ही तनाव हैं
मेरे हिस्से में,
एक तरफ शारीरिक पीड़ा तो दूसरी तरफ मानसिक बेचैनी, रंग बदलती इस दुनिया की
आपाधापी में, यह विडम्बना ही है सुकुन के वो दो पल खो दिये मैंने जिसमें जीवन का सारा
सुख, समृद्धि था छिपा…!
जानते क्या हो…?
जानते क्या हो तुम, उनके बारे में,
जो खुद को स्थापित कर तुम्हें निर्वासित करते आये
और आज भी कर रहे हैं, जो सदियों से समाज, साहित्य
और इतिहास में, दबाते रहे थे
और आज भी दबा रहे हैं जीवन के हर मोड़ में,
जानते क्या हो तुम उनके बारे में? जिन्हें जीवन जीने का सलीका सीखलाया आज वहीं तुम्हें बोका
और अपने को होशियार समझते हैं, जिन्हें मालूम नहीं
खुद अपनी संस्कृति वो लिख रहे हैं आज तुम्हारी संस्कृति,
जानते क्या हो तुम उनके बारे में?
जिन्हें जीने का रंग-ढंग सिखाया
खुली वादियों में आज वही तय कर रहे हैं तुम्हारा इतिहास
तुम्हारा भूगोल, जिन्हें धनुष पकड़ना सीखलाया,
वही साध रहे हैं आज तुम्हारे ऊपर निशाना,
जो विकास के नाम पर हर दिन कर रहे हैं तुम्हारा विनाश!
आखिर जानते क्या हो, तुम उनके बारे में…?