
Laldeep
सुनसान ठिठुरती रात में/बरवाडीह के प्लेटफार्म नंबर तीन पर/ दोने बनाने में जुटी-भिड़ी औरतों के बीच/ सिकुड़-सिमटकर बैठी/ बूढ़ी आदिवासी औरत/ जब दुःख में पगा/ कोई खोरठा गीत गुनगुनाती है/ तो उसके स्वर में/गूंज उठता है/ लय में लिपटा विलाप… सखुआ के पत्तों से दोना बनाती आदिवासी औरतें, जिनके हिस्से बस दोने भर नींद है…
कवि इन मेहनतकश औरतों के दोना बनाने और गीत के लय को उनके आदिम दर्द के साथ गहराइ से महसूसता है. इनके बच्चे, आदमी को महानगर निगलते जा रहा है. जिनके लिए पलायन और विस्थापन नियति बन गयी है. कवि अनवर शमीम का यह दूसरा काव्य संग्रह है- अचानक कबीर.
जो इंसान के कबीर होने की स्थतियों पर गहराई से पड़ताल करता है. जंगल इनकी कविता में भय या आतंक के रूप में नहीं आता. बल्कि कवि जंगल के लिए हांका लगाता है. और एक-एक हरे पत्ते को जगाना चाहता है. जंगल जो जीवन है. जहां प्रेम है. आश्रय है उसे सहेजना चाहता है. इसलिए वह जंगल के लिए अंतड़ी के दुखने तक गाना चाहता है.
इनकी कविताओं के केंद्र में स्त्री है. जिसकी गहरी मानवीय संवेदना से कवि हमे जोड़ता है. मां जो रोटी सेंकती है और सेंकती जाती है भविष्य. चाची हैं जो कवि की बचपन की स्मृति के साथ गहरी पैठ बनाये रखती हैं.
चाची/ तुम्हारी दुनिया मैं था/ लेकिन/ हर शाम तुमसे / तुम्हारी दुनिया/ छीन ले जाती थी मेरी मां. चाची का वह आत्मीय प्रेम कवि को तमाम शहर, नगर, कस्बों के भागदौड़ के बाद भी उसे खींचता है. और कवि कहता है- मैं लौटना चाहता हूं/ अपने बीते हुए दिनों के साथ/ चाहता हूं तुम्हे चूमना/ एक बार फिर/ अपना चुम्बन देना चाहता हूं/ चाची, तुम्हारी आंखें / मुझे देखकर कितनी खुश होती हैं/ और मैं / तुम्हारी टह-टह लाल टिकुली.
अनवर शमीम की कविताओं में डबकते भात की सुगंध है. जिस भात के लिए आज भी बच्चे भात-भात कहते दम तोड़ देते हैं. चावल फटकती, चुनती बिना हिल हुज्जत के स्वेटर बुनती औरत है. श्रम से उपजी सौंदर्य को कवि रेखांकित करते हुए चलता है. हालांकि हक़ अधिकार के लिए संघर्षरत महिलाएं नहीं हैं. लेकिन यथार्थ से वह बखूबी जुड़ी हैं. इसलिए अपनी प्रेमिका के लिए दोस्त की चिठ्ठी में कवि कहता है –
अब तुम्हीं बताओ/ उसके लिए/ कहां से लाऊं/ सोने चांदी के पांव. गिरानी (मंहगाई) में नाच में कवि हमारे समय को इन पंक्तियों में दर्ज करता है- इस जीवन विरोधी/ समय में/ एक -एक पल में/ लड़ता-भिड़ता वह नाच रहा है/ जीवन के लिए!
यह समय जीवन के मूल्यों के खोने का भी है. जहां सन्दर्भ और अर्थ बदल रहे हैं. जीवन घोर संकट में है. शायद इसलिए कवि काठ के दरवाजे में कहता है-
काठ के दरवाजे से लगकर/जब भी कोई पढ़ता है अख़बार/ काठ के दरवाजे/ बड़े ही ध्यान से/सुनते हैं खबरें. यह समय की चुनौती है की हम चौकन्ने रहे क्योंकि कभी-कभी कुछ ऐसी भी डरावनी ख़बरें आती हैं कि काठ के दरवाजे सहम जाते हैं. एक डरे हुए शहर का सच में कवि इस डर का सही-सही शिनाख्त करता है. हर रात/ किसी दुत्कारे हुए/ आदमी की तरह/ उजाड़ हो जाता है शहर/ कितने भारी-भरकम हैं आतंक के पांव.
इस डर का विस्तार देश और पूरी दुनिया में है. खाड़ी युद्ध कविता में, लड़की चाहती है दुनिया की तरह गोल रोटी बनाना लेकिन खाड़ी युद्ध को याद कर वह भूल जाती है रोटी बेलने की कला. आयोध्या में डरा हुआ बाबर है और सहमा हुआ राम. भय और आतंक पर कवि हमे सोचने को विवश और बेचैन करता है. बूढ़े का वायलिन-
बूढ़ा/ खतरनाक लोगों की बेहद खतरनाक साजिशों के खिलाफ/ लगातार/बजा रहा है वायलिन.
इनकी कविताओं में बच्चे बार-बार आतें हैं. वे रेल-रेल खेलते हैं. काठ के राजा में कवि उन गरीब बच्चों के मनोविज्ञान की बेहतर अभिव्यक्ति देते हैं जो नहीं चाहते हैं खेलना काठ के राजा से. इस कविता संग्रह का शीर्षक अचानक कबीर में –
अचानक कबीर/ बच्चों के साथ बन जायेंगे बच्चा/ और जोर से हंस पड़ेंगे/ उदास बच्चे भी/ कई दिनों बाद/ फिस्स से हंस देंगे कबीर के संग!
कहना नहीं होगा कि अनवर शमीम की कविताओं में लयात्मकता है. जिसकी तारतम्यता शुरू से अंत तक बनी रहती है. ये हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं जो मनुष्यता को बचाने और समय का विकल्प हांका लगाकर देना चाहते हैं.
प्रकाशक – नयी किताब, नवीन शहदरा, नयी दिल्ली
मूल्य सजिल्द – 200 रुपये