
Babban Singh
हाल में संपन्न संसदीय उपचुनाव परिणामों ने एक बार फिर से कांग्रेस के सामने भाजपा सरकार के विकल्प बनने की संभावना को मजबूत किया है. लेकिन इस मोड़ तक पहुंचने के लिए कांग्रेस को काफी कुछ बदलना होगा. हालांकि फिलहाल ऐसा प्रतीत नहीं होता दिख रहा है. फिर भी राहुल गांधी के गुजरात अभियान और कांग्रेस के प्लेनरी सेशन के बाद इस बात की संभावना बढ़ गई है कि वे कांग्रेस पार्टी में आमूल-चूल बदलाव की इच्छा रखते हैं. अब जरूरत केवल इस बात की है कि वे इस दिशा में बढ़ते हुए अपनी इच्छा शक्ति का भी स्पष्ट प्रदर्शन करें.
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उत्तर प्रदेश और बिहार के उपचुनाव नतीजों ने कांग्रेस के सामने एक बात स्पष्ट कर दी है कि 2019 के संसदीय चुनाव में इन दो प्रदेशों में कांग्रेस अपने बल पर चार-पांच से ज्यादा सीटों की उम्मीद नहीं कर सकती. पर हम जानते हैं कि दिल्ली की सत्ता की राह इन राज्यों से होकर ही गुजरती है. इतिहास गवाह है कि इन राज्यों में अल्पमत में रहने वाली कोई भी पार्टी अबतक दिल्ली में सरकार चलाने में कामयाब नहीं हो पायी. हालांकि 1979 के बाद के दो दशकों में इन दो राज्यों में अल्प सीटें हासिल करने वाली पार्टियों ने चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा, व गुजराल के नेतृत्व में सरकारें बनाने में सफलता हासिल की पर वे कांग्रेस के कंधें के सहारे खड़ी होने के कारण बहुत ज्यादा समय तक गद्दी पर बनी रह सकीं. ऐसे में वर्तमान हालात में सवाल उठता है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में बगैर यूपी-बिहार के सांसदों के 100 या 100 से कुछ ज्यादा सीटें लाकर भी कांग्रेस की अगली सरकार कैसे बनेगी ? ये एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब अभी देना आसान नहीं. लेकिन इस लेख के अगले भागों के आधार पर इसका कुछ जवाब मिल सकता है.




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अनेक टिप्पणीकारों का मानना है कि भाजपा सरकार के खिलाफ तेज सत्ता-विरोधी लहर के बावजूद भी फिलहाल नरेद्र मोदी ही अपने करिश्माई व्यक्तित्व के बल पर दुबारा सत्ता में आने की स्थिति में हैं. फिर भी नित्य बदलती स्थिति में भाजपा और मोदी सरकार इस बारे में आश्वस्त नहीं हो सकती है. ऐसे में अतीत के अनुभव से कहा जा सकता है कि गैर भाजपा दलों में राष्ट्रीय स्तर पर आज भी कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है जो दिल्ली में सरकार गठन करने की मजबूत हैसियत रखती है. हालांकि यहां स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं कि फिलहाल यह संभावना चार आने से ज्यादा नहीं.
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इस बीच हालिया उपचुनाव परिणामों के बाद तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव की बंगाल की मुख्यमंत्री ममता के साथ आकर तीसरे मोर्चे की संभावना की तलाश इसमें बड़े सवाल के रूप में खड़ा हो सकता है. अतीत के अनुभव के कारण अन्य बहुतेरे क्षेत्रीय दल इस संभावना के प्रति बहुत उत्साहित नहीं दिख रहे हैं. साथ ही फ़िलहाल मोदी और भाजपा के सामने त्रिकोणीय चुनाव में तीसरे मोर्चे की कोई संभावना दूर-दूर नहीं दिखाई दे रही है. इसलिए यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं कि भाजपा के विरोधी सभी दलों को 2019 का चुनाव एक साथ लड़ना होगा अन्यथा वे अपने-अपने राज्यों में कुछ सीटें हासिल करने के अलावा भाजपा के खिलाफ कोई गतिरोध खड़ा करने की स्थिति में नहीं हैं. लेकिन अगले चुनाव में कांग्रेस 100 से ज्यादा सीटें ले आती है तो कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनाने की उसकी दावेदारी मजबूत हो जाएगी.
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लेकिन इस तरह के किसी गठबंधन के लिए राहुल गांधी और कांग्रेस को अभी से लगना होगा. पर इस कवायद में लगने से पहले कांग्रेस और राहुल गांधी को अपने कार्य-प्रणाली अर्थात आचार-व्यवहार में आमूल-चूल बदलाव की जरूरत होगी क्योंकि अभी आम जनता से लेकर सहयोगी दलों में उसकी प्रतिष्ठा बेहद निचले स्तर पर है. हालांकि हाल में संपन्न सोनिया गांधी की डिनर डिप्लोमेसी इसी कवायद का हिस्सा थी पर अब इस कवायद की बागडोर राहुल को स्वयं संभालनी होगी. इस मामले में वे मोदी की रणनीति का अध्ययन कर सकते हैं जिसके तहत उन्होंने अपने घनघोर विरोधी नीतीश कुमार को भी अपने पाले में ले आए. इसी तरह ममता दीदी और चंद्रशेखर राव के साथ-साथ अखिलेश और मायावती को उन्हें अपने पाले में लाना ही होगा.
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इसके बाद चार आने की वर्तमान संभावना को सोलह आने में बदलने के लिए कांग्रेस को सामान्य रणनीति नहीं बल्कि अबतक के एकदम भिन्न व चुस्त रणनीति से काम करना होगा. यहां याद रखना चाहिए कि कांग्रेस और विपक्ष के अन्य दलों का मूल स्वभाव बहुत आक्रामक नहीं है लेकिन फिलहाल एक अविजय माने जाने वाले मोदी जैसे सियासी योद्धा के सामने उनकी ही (युद्ध की) रणनीति से काम करना होगा. हालांकि लोकतंत्र में युद्ध की रणनीति से काम करने के अपने खतरे हैं क्योंकि इसकी छाप चुनावों के बाद भी दिखती है और शासन में आने के बाद प्रायः जूलियस सीजर बनने में देर नहीं लगती. लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी और संघ की जबरदस्त सांगठनिक शक्ति के सामने, जो आखिरी एक सप्ताह में चुनाव (गुजरात चुनाव) का रंग बदलने की शक्ति रखती हो, तो ऐसे खतरे उठाने ही होते हैं. हालांकि इस बात की संभावना प्रबल है कि इसके दुष्परिणाम से बचने के लिए चुनाव बाद शुद्धि और बड़ी क़ुर्बानी की भी जरूरत पड़े. वैसे भारतीय राजनीति में इसकी एक मिसाल खोजी जा सकती है जब सत्य और अहिंसा में विश्वास रखने वाले महात्मा गांधी को 1942 में “भारत छोड़ो” जैसा हिंसक आंदोलन भी छेड़ना पड़ा था. 1921 और 1931 में अहिंसक तरीके से असहयोग और सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाने वाले महात्मा भी ऐसे आंदोलन से बच न सके थे. (जारी)
ये लेखक के अपने विचार हैं.
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