
Ritesh Sarak
Giridih : गिरिडीह में बायो मेडिकल प्रदूषण का खतरा दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है. सदर अस्पताल में बने जिले का एकमात्र इंसीनरेटर प्लांट वर्षों से बंद पड़ा है. इसके कारण अस्पताल के बायो मेडिकल कचरे का निष्पादन नहीं हो पा रहा है. इस समस्या से न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान हो रहा है, बल्कि प्रदूषण के कारण पशुओं और लोगों के स्वास्थ्य को भी नुकसान हो रहा है.
क्या है बायो मेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट


झारखंड में भी बायो मेडिकल वेस्ट (मैनेजमेंट एंड हैंडलिंग) अधिनियम लागू है. राज्य प्रदूषण नियंत्रण पर्षद इसकी नियामक संस्था है. इसके तहत सभी सरकारी और निजी अस्पतालों, जांच घर और क्लीनिकों को नियम के मुताबिक हर दिन बायो मेडिकल कचरों को सुरक्षित तरीके से डिस्पोज करना जरूरी है. यह व्यवस्था नहीं होने पर कई दण्डनीय कार्रवाई का प्रावधान है. झारखंड क्लीनिकल इस्टेब्लिशमेंट एक्ट के तहत भी बायो मेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट को अनिवार्य किया गया है.


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क्या है इंसीनरेटर प्लांट
इंसीनरेटर प्लांट में विभिन्न तरीके के बायो मेडिकल कचरे को जलाकर भस्म किया जाता है. झारखंड में कुछ ही जिलों में इंसीनरेटर मशीन लगी हुई है, लेकिन सरकारी लापरवाही के कारण अधिकतर बेकार हो गई है. गिरिडीह भी इसमें शामिल है.
क्या कहते हैं अधिकारी
गिरिडीह के सिविल सर्जन राम रेखा प्रसाद कहते हैं कि उन्हें गिरिडीह आए हुए मात्र तीन महीने ही हुए हैं. मालूम चला है कि इंसीनरेटर प्लांट सालों से बंद पड़ा है. मशीन खराब है. ठीक कराने में 15 से 20 लाख रुपए लगेंगे. वही यह प्लांट शहर के बीच में स्थित है जिसकी वजह से मशीन ठीक करवाकर चलाने पर भी स्थानीय लोग इसका विरोध करेंगे. यह सवाल पूछे जाने पर कि अगर इतनी ही दिक्कत है मशीन को यहां चलाने में तो इसे शहर के बीच में स्थित ही क्यों किया गया. लेकिन सीएस इसका संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए.
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क्या है शहर का हाल
सिविल सर्जन ने दावा किया वैकल्पिक व्यवस्था के तहत रोज नगर निगम की गाड़ी कचरे को ले जाती है. हमने सदर अस्पताल के परिसर के अंदर जहां तहां मेडिकल कचरों को बिखरा हुआ पाया उन कचरों के ढेर में ग्लव्स, सिरींज आदि सर्जिकल चीजें फेंकी हुई मिली, जो नियमत: बहुत खतरनाक है. गौरतलब है कि गिरिडीह नगर निगम के पास फिलहाल मेडिकल वेस्ट के डिस्पोजल का कोई संसाधन या उपाय उपलब्ध नहीं है. आम कचरे के साथ इसे नदी और जहां-तहां फेंक दिया जाता है. यह कितना गंभीर और खतरनाक है, यह ना तो सिविल सर्जन समझ रहे हैं और ना ही नगर निगम के कर्ताधर्ता.
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