पटना, 8 मार्च | वैसे तो देश में वर्षभर कई पर्व-त्योहार मनाए जाते हैं, फाल्गुन मास के अंतिम दिन मनाए जाने वाले होली पर्व की अपनी अलग विशेषता है। बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक होली का त्योहार सभी को अपने रंग में रंगने और विभिन्न प्रकार के गुलालों के कारण अलग छटा बिखेरता है।
बिहार में होली के मौके पर गाये जाने वाले फगुआ की अपनी गायन शैली के लिए अलग पहचान है। राज्य में कई स्थानों पर कीचड़ से होली खेली जाती है तो कई स्थानों पर ‘कपड़ा फाड़’ होली खेलने की भी परंपरा है।
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होली के दिन रंग से सराबोर लोग ढोलक की धुन पर नृत्य करते, लोकगीत गाते हुए आनंदित होते हैं और गांव के प्रत्येक घर में पहुंच कर एक-दूसरे को रंग से सराबोर कर उन्हें अपनी महफिल में शामिल कर लेते हैं।
हिंदी संवत् के अनुसार नए वर्ष की शुरुआत होली के अगले दिन चैत महीने से होती। बुजुर्गो का कहना है कि यह पर्व आापसी सैहाद्र्र और मेल-मिलाप का पर्व है। बुजुर्ग रामनंदन सिंह कहते हैं, “अगर सरल शब्दों में कहें तो दीपावली हमारे घर की सफाई का पर्व है तो होली हमारे मन की सफाई का पर्व है।”
वह कहते हैं कि होली का वास्तविक प्रारंभ होलिका दहन से होता है। इस मौके पर बेकार पड़ी लकड़ियों का समान इकट्ठा कर जला दिया जाता है। इससे कूड़ा-कर्कट भी खत्म हो जाते हैं। फिर रंग और गुलाल की धमाचौकड़ी शुरू हो जाती है। पुरुष, महिलाएं, बच्चे सभी मस्ती में झूमते हैं। चारों ओर गीत-संगीत और आनंद का माहौल होता है।
बिहार में होली की बात चल रही हो और भांग का जिक्र न हो, ऐसा हो नहीं सकता। होली के दिन लोग भांग का सेवन जरूर करते हैं। बिहार में बूढ़वा होली मनाने की भी परंपरा है। होली के दूसरे दिन कई इलाकों में लोग बुढ़वा होली खेलते हैं। इस दिन लोगों की मस्ती दोगुनी होती है।